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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
ठमै वास देवादि कौं, रुद्रादिक कौं सोय । ठग सुरासुर वर्ग कौं, वचे जहां ते कोय ।।१२।। क्रोध प्रिया हिसा महा, काल रूपरणी जोय । ठग सवनि को सर्वदा, उबर मुनिवर सोय ।।१२६।। नाहि कठोर गुमान सौ, चढि जु रह्यो गिरमान । गनै तुछ सवको सदा, खोस गुन से प्रान ।।१२७॥ . हरै विन धन सर्वथा, कर वहुत विपरीत । ताकै वलि नप मोह खल, होय रह्यो जु अजीत ।।१२८।। श्रांत सम्मान गुमान की, लोह राज दरबार । ठग फनिन्द्र महिन्द्र कौं, यह ठग असि वलधार ॥१२६ ।। मान प्रीया ठगनी बुरी, नाम अहं ता होय । अहंकार लीयां सदा, भयंकार प्रति सोय ११३०।१ ठग जु अहमिद्रादि कौं, ठगै मुनिनि को एह । काइक उवरै सांत धी, धारै सा विदेह ।।१३१॥ कपट समान न कुटिल को, सो नृप को परघांन । प्रति छल वल परपंचमय, पाखंडी परवान ।। १३२॥ ठगै सदा सब को सही, करै जगत कौं बाध । कोइ उबरं साधवा, करै जु निज आराध ।।१३३॥ कपट प्रिया है कालिमा, कुटिलाई को धाम । ठगें नारदा दानि को, बचें मुनी तिह काम ||१३४॥ नहीं लुटेरा लोभ सो, लूटे त्रिभुवन जोहि । सो सेनापति मोह के, अति कोड़ीभड़ होहि ॥१३॥ सुरपति नरपति नागपति, खगपति दलपति जेहि । सर्व लुटावे लोभ , बंड़ लोभ कौं देहि ॥१३६।। लूट सवको सर्वथा, लोभ सर्वदा वीर 1 कोइक लूटे जाहि नहिं, संतोषी मुनिधीर ॥१३७।।