________________
विवेक विलास
नहि विभाव व्यंतर नहा, भर्म भूत नदि होय । रागादिक राक्षस महा, तिनको नाम न जोय ।। ६७३।। नहीं अविद्या बासना, सम कुवासना कोय । सो न जा विषे है सही, सम रस निर्मल तोय ।।६७४।। दुख को लेस न है जहां, निज सुख पूरण सोई । नाहि कलपना जालमय, काई कलमष कोई ।। ६७५।। उज्जल निरमल भाव से. परम हंस नहि और । केलि करें ताम सदा, जा सम और न और ॥६७६।। जहां सिवारण प्रमाण से, अप्रमारण प्रति रम्य । अचल प्रखंड अनूपमा, नहिं अजाण की गम्य ॥६७७।। जोर न इद्री चोर को, सोर न कहू सुनात्र ।
गनि सके परपंच ठग, शुद्ध राव परभाब ।६७८।। भागे वेचक तसकरा, वापी को सुनि नाम । रतन वापिका इह सही, गुण रतननि को धाम ।। ६७६ ।। बटपारे न विकार से, काम लोभ से दीर । तिनही न सूझ वापिका, रमै महामुनि धीर ।। ६८० ।। फुलि रहे भावा कमल, अमल अलेप स्वभाव । रमण भाव रूपी भमर, भमैं सदा निरदान ।।६८१५॥ ताकै तटि तरवर मुधा, भाव प्रद्धेदि अभेदि । सीतल सघन सुवास अति, डारे दाह उछेदि ।।६८२॥ समता रूप सुधा लता, धरै विमलता जोय । फूलि रही अति फलि रही, सदा लहलहै सोय ।।६८३।। परम भाव अम्रत फला, भाव प्रफुल्लित फूल । पल्लब भाव प्रकासमय, पत्र तापहर मूल ।।६८४॥ वेलि वृक्ष पीयूषमय, वापी तीर विसाल । माया बेलि न विषमइ, एकन विकलप जाल ।।६८॥