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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सदा विभाव तडाग तटि, थावर जंगम जीव । लूटे जाहिं अनेक जन , कूटे जाहिं कुजीद ॥६६३।। कोइक मुनिवर उवरै, जिनवर की जन होय । सर बिभाद सो विमलर, और जर जोन :६६४ा इह विकलप सर बर्णना, उर धार जो धीर । सो विकलप सर लंधि के, निरविकालप है वीर ।।६६५।। निज स्वभाव सत्ता महा, सो निज दौलति होय । और न संपति सासती, यह निश्चै अवलोय ।।६६६।।
।। इति विभाव सर वर्णन ।।
दोहा अध्यात्म वापिका वर्णन--
देव दयानिधि देव जो, दिव्य दृष्टि भगवान । दरसावै निजसंपदा, सो सरवज्ञ सुजान ।।६६७।। वंदनीक सब लोक गुर, सकल लोक को ईस । रमैं निजातम भाव मैं, नमू ताहि नमि सीस ।।६६८।। नही ब्रह्म विद्या जिसी, बापी अमृत रूप । वापी मै पापी नहीं, मोह पिसाच विरूप १६६६।। अध्यातम सौ लोक मैं, अमृत और न कोय । अध्यातम ये वापिका, त्रिविध तापहर होय ।। ६७० ।। नहीं सिंवाल संसै जहां, पाप पंक नहि लेस । नहि व्याकुलता भाव कृमि, मेट सकल कलेस ।।६७१।। भरी शांत रस नीर ते, परमानंद स्वरूप । हरै दाह दुख दोष सव, रमै तहां चिद्र प ॥६७२।।