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विवेक विलास
१२.
ठग नहि जग के भाय से, ठग ज्ञान सा माल । बसे सदा छलसर निकट, करै वहुत बेहाल ।।६५०।। अति ठगनी भव भावना, ठग सुरासुर सोय । कोइक उवरै साधवा, संजम जिन होय ॥६५१ ।। प्रभस्त्र भक्षका हिसका, करै कुसोल बिहार । तिन से अपराधी नहीं, ते सर तीर अपार ।।६५२१।
यह सरवर नहि केलिको, कबहू रमन न जोगि । . तहा जाय मतिमत्र तू, सवही बात अजोगि १६५३।।
है पिसाच सर पिसुन सर, विकट सरोवर बीर । कीट सरोवर क्षार सर, करें महादुख पोर ।।६५४।। कीट न कलुष स्वभाव से, यहै कलुषता पूर । रहैं पारधी पातकी, जे शुभ ते अति दूर ।।६५५।। तामस सौ नहि तिमर है, राजस सम रज नाहि । यह राजस तामस मइ, सब दुख याके मांहि ।।६५६।। कमल न भाव अलेप से, तिनको सदा प्रभाव । कटिक नांहि कषाय से, तिनको महा प्रभाव ।। ६५७।। कंकर क्षुद्र स्वभाव जे. दीखै तेहि विसेस । नहीं रतनन की बात ह्यां, लखिए असुभ असेस ।।६५८।। भमर न भावर संज्ञ से, तिनको नाम हु नांहि । दृष्ट भाव डांसर घने, रंच न सुख सर मांहि ।।६५६ ।। मछर भावहि मांछरा, माखी मंलिन सुभाव । कृमि कुभाव रूपी महा, सर मैं बहुत लखाव ।।६६०।। भव वन मैं विकराल इह, भ्रमसर भयकर होय । है विभाव-सर विषम-सर, विषसर इसौ न कोय ।।६६१।। शुद्ध निजातम भात्र तें, भिन्न जेहि भव भाव । राग दोष मोहादि रिपु, ते कहिये जु विभाव ।।६६२।।