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महामवि दौलतराम कारालीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
रति अरति अति राषिसी, रसना लोलप रीति । सर्व कुरीति लीयां वसै, विष सर मैं बिपरीति ।। ६३७।। भय विभ्रममय भाव जे, तेहि भूत भ्रमजाल । यह भूतिन को सरवरा, रहैं भूत विकराल ।।६३८।। भोग भावना भूतनी, 'प्राति स वा भ्रमैं सदा भ्रमसर विर्षे, भयकारी बिडरूप ॥६३६ ।। परदारा परधन हरा, परद्रोही परिणाम ! ते पिसाच पापी कर, विषसर मैं विश्राम ।।६४०।। पराधीनता पापिनी, मिथ्या परगति रुप । पापन्नति पिसचिनी, भवजल मैं भय रूप ।।६४१।। सर्व विभाव विकार जे, विर्ष विनोद असेस । ते वितर विषसर विष, वैरी बसें विसेस.॥६४२।। प्रति अन्नत्तनिकी सदा, निरवति धरै न सोइ। वै बितरी बलवती, मल सरवर मै होइ ।।६४३ दुराराध्य दुरनीति धर, दुरजय दुसह सुभाव । ते दौरा दौरे सदा, अति दोषादि कुभाव ।।६४४।। अति प्रपंचमय बंचक्रा, माया मदन मनादि । पूति सरोवर तीर हो, वचे विश्व अनादि ।।६४५।। भात्र चलाचल चपल गति, त्रिश्ना रूप विरूप । ते तसकर कुतड़ाग तहि, चोरी करें कुरूप ।।६४६।। लोभादिक लंपट महा, तेहि लुटेरा वीर । लुटें सर्वहि लोक कौ, कोइक उवरै धौर [१६४७॥ वटपारे कुत्रिसन महा, जूबां मद मांसादि । वेस्या परधन हरणाता, परदारा हिंसादि ॥६४८।। रोक पथ निरवान कौं, रहैं पापसर पालि । तिन करि जग के जीव ए, सकै नहीं संभालि ।। ६४६।।