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विवेक विलास
प्रथा व वितथा लपें, लोभी लंपट भाव । तिन से भेक न और को, धरै बिवेक अभाव ।।६२४।। दादर डेडर भेक ए, हैं मी हक के नाम । यह मींडक की सरवरा, काल नाग की धाम ।। ६२५।। मुह मीठी बात करें, पीछे अति ही कठोर । तेहि काछिवा सर विर्ष, जहां असुभ को जोर ।।६२६।। नन्हिीं मन नान्ही दसा, कृपण सदा परिणाम । तेइ झीगर जानिये, मलसर तिन को घाम ।। ६२७।। धीवर कुकरम भाव जे, चाल अधरम चाल । ते बिचरें विषमर नखे, धार बिकलप जाल ।।६२८।। मगर न होइ मही विष, महा मोह सौ कोइ । सुर मारक नर सिर को, निगल पापी सोई 11६२६ ।। वसै सदा बिषसर विष, रूप महा विकराल । अवरह जलचर भावखल, जामें अति असराल ॥६३०।। सोर कुपक्षनि को सदा, सारिस जुगल न कोय। सारिस दरसन ज्ञान से, और न जग में होय 1६३१।। दुखदाइ दोषीक जे, दया रहित परिणाम | दैत्य दानवा ते महा, खलसर तिनकों धाम ।।६३२३॥ दुष्ट व्रतो दुरजन दसा, दुरगति दाइ रोति । तेहि देश्यनी बहु बस, मलसर मैं विपरीति ।।६३३ ।। असूचि असूभ अम्रतमयी, अरि समान अघ भाव । असुर असंजम रूप जे, तिनकौं तहां प्रभाव ॥६३४॥ प्रत्रुलत अविवेकता, पासा प्रारति रूप। वस अविद्या आसुरी, विषसर विष विरूप ।।६३५।। रमें राग धरि भोग मैं, जग अनुरागी भाव । रस अनरस ले राखिसा, तिनको तहां बसाव ।।६३६॥