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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतिरब
पाप 'पालितें वंधियों, इहै ताप सर आप । महा विकट सर भर्म सर, देय सदा संताप ।।६११ ||
सर
एह ।
करें न यास नेह ।। ६१२ ।।
तें पूर ।
नहीं दाहहर दोसहर, नहीं रम्य हंसन शुद्ध स्वभाव से कीचन काम कलंक सौ, यह पंक अकात जल निज अनुभवा, सदा या अम्रत वृक्ष न बोध से, फलै विमल फल भाव । ते विकलप सर तीर नहि, यह निश्चै ठहराव ।। ६१४ ।। निज प्रवृत्ति भव निरब्रती, ता सम सुधा न बेलि ।
थकी दूर ।।६१३।।
सो विष सरवर तट नही, जामैं रस की रेलि ।। ६१५ । ।
अशुभ कर्म से वृक्ष विष, विषै बुद्धि विष वेलि । तिनकी विकलप सर निकट, दीखे रेलि जू पेलि ।। ६१६ ।।
जल कागन जड़ भाव से, तिनको तहां निवास । बुग नहि पाखंडीनि से, तिनकी सदा बिलास || ६१७ ।।
बुद्धि वियोगी बहिरमुख, वहिरातम भव भाव | तेइ चकवा ता विषै विरह रूप दरसाव ।। ६१८ ।। निसि न अविद्या सारखी, तिमर रूप दरसाय | तामें चकवी चेतना, कबहु लखी नहि जाय ।।६१६ ।। जगत वासना सारिखी, और न कोई कुवास | फैलि रही विषसर विषै रोग सोग परकास ।।६२० || मल नहि राग विरोध से, इह मलसर लपूर । खलसर अखिल विभाव से, सुंदरता सों दूर ।। ६२१ ।। मिथ्या मारग पक्षधर हिंसक दुष्ट सुभाव । तेहि कुपक्षी कुसवदा, तिनको सदा प्रभाव ।। ६२२।। मीन नदी न स्वभाव से, प्रति मलीन मतिहीन
ते विचरैं विषसर विषै, अति चंचल अघलीन || ६२३ ॥