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विवेक बिलास
शुद्ध
सरोज निवासिनी, निज सत्ता अनुभूति |
करें केलि सुखसर विषै केवलज्ञान विभूति ||६०१ ||
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इह समरस सर वर्गांना, पढ़ें सुने जो कोय !
सो अविनासी पद लहै, निज शैलति पति होय ।। ६०२ ।।
॥ इति श्री भाव सरोवर वर्णनं ।।
विभावसर वर्णन -
दोहा
चेतन भावमइ सदा, सर्व भाव बितीत जो,
चिदानंद विद्रूप |
ज्ञानानंद स्वरूप ||६०३३॥
सीतल विमल अनंत गति, धर्म धुरंधर देव | शांतभाव सब कर्महर करें सुरासुर सेव ।। ६०४ ।। जाकी भगति प्रभाव सौं, उपजे आतम बोध | लखं आप मैं आपकों, करें करम को रोध ।। ६०५ ।।
का विकलप सर थकी, निर विकलप रस पाय | टारं मनमथ मोह मल, सौ त्रिभुवन की राय ||६०६।। ताके चरण सरोज नमि, प्ररणमि सार सिद्धांत | विकलप सर वर्णन करू, तजें जाहि मुनि शांत ।। ६०७ ।। विसर विकलप सर समो, नहि संसार मकार | महाविषम सर मलिन सर, जामें रंच न सार ।। ६०८ ।। अति संकल पर विकलपा, तेइ विष जल वीर | भर सदा विष नीर तैं, विषतरु तार्क तीर ।। ६० ।। विपतरु विषै कषाय से, और न जानों कोइ । सर्व विभाव विकार मय,
सदा मरण दे सोइ ||६१०||
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