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महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
श्रासा नाम जु ग्रासुरी, सर को नाम न लेय परनिंदा जु पिसाचनी, पावन तहां धरेय ||१८८३ अमल न कोई मिथ्यात सौ, जहां न मिथ्या भाव 1 जोग सदा श्रानंद कौं, सम्यकज्ञान प्रभाव ||५६६ ॥
वंचक नांहि प्रपंच से, चोर न चित से कोय 1
ठग नहि छल पाखंड से सब तैं बजित सोय ।। ५६०।
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नाहि विपरजै भाव से बटपारे विपरीत । मारें मारग मोक्ष को, धारें सदा नीत ।। ५६१।। तिनको नांही वसाय हैं, राजे चेतनराय । लुटि सकेँ नहि लोक कौं. लोभ लुटेरा प्राय ।।५६२ ।। दौरा दौरि सके नहीं, दंभ दोष दुख आदि ।
चार अपराध मय, जहां न जल कागादि ॥ ५६३|| भाव विराधक कुटिल प्रति प्रारति रौद्र कुध्यान । बुगतेही गनि ठग महा, जहां नहीं छलवान ।। ५६४ || प्रविधि जोगि अति नहि, निज तडाग तटि कोइ । शुद्ध बुद्ध आनंदमय सिद्धनि को सर सोय ।। ५६५ ।। त्रिविध तापहर पापहर, हरण सकल संताप | इह निज सर सुखधाम है. रमैं आप निपाप ।। ५६६ ।। परम मनोहर सर सदा, रतन सरोवर एह । राज सरोवर है महा कीड़ा जोगि अछेह ||५६७ || स्वरस स्वसंवेदन समो, नहीं और रस स्वाद । अमर अनूपम सर इहै, जहां न हर्ष विषाद ।। ५६८ || मरें न काहू काल ही, निज सरवर रस पीव ।
रहें मगन निज भाव में, सदा सरवदा जीव ||५६६ ॥ भाव नगर के निकट ही, भाव सरोवर होय रम्य महा रमणीक प्रति, सुंदर सरवर सोय ।। ६०० ||