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अध्यात्म बारहखड़ी
प्रित तपकर प्रति तपश्रर स्वामी,
अति तप अनशन आदिक प्रगटी,
अति तप विनिंदक प्रति तप भाया,
अनशन रूप अभूष
जी,
भास कहै जू विभूजी ।। ७७ ।।
श्रवमोदर्य
अति तपभर श्रति तपहर नामी ।
श्रदन नहीं तेरं कबहू
अनशन
तू प्रतिरस
प्रति तप-ज्वर रोगादिक विघटा ।। ७६ ।।
नू विविक्त
अति वृतिपरिसंख्या क्षायक तू.
अति हि
प्रसंसक नू है, तप तेजस्वी तु जु प्रभू है ।
प्रति रसनायक सव नावक तू ॥७८॥
पर रसपरित्यागी,
अतिरित शय नाशन तप भागी ।
देवा
अंकाया ।
शय्यासन
तू जु अकायक लेश प्रभेवा ॥७६॥
कायकौं क्लेश देनां,
संकलेस
छह विध वाहिर
भाव
तप तू भाषे,
विधि अंतर तप हू राखे ||८०||
तू अपवित्र जु भावन राखें,
नविलेनां ।
तेरे प्रायश्चित नहि होई,
तू जु पावित्रा तम रस चाखे ।
१.७७
पाप लगै नहि तोहि जु कोई ||८१||