________________
विवेक विलास
प्रोहण लूट जल विर्षे, सव को सरवसु लेय । जल दौरा लालच महा, जग को बंद करेय ॥३५७।। तसकर त्रिष्णा भाव जे, चोरें अह निसि माल । माखन झार विरागी, हरे जगतः जाला ।१३५८।। अभख भक्षका हिंसका, तेहि सिंघ व्याघ्रादि । अति दोषी विष का भरचा, जेहि जानि सर्पादि ।।३५६।। सदा भवोदधि के तट, मद परिणाम मजादि । विचरे कायर चंचला, भाव सुसा मृग आदि ।।३६०॥ वाधक भाव कुभावजे, तेहि व्याध अति होय । अपराधी परिणाम जे, तेहि पारधी जोय ।।३६१ ।। मूल महा दुख को सदा, भव समुद्र भय रूप । जामैं रंच न रम्यता, दीसं बहुत विरूप ।।३६२।। है अवह अघ गेह यह, लंघे याहि अनेह । तजे गेह देहादिस्यौं, मोह मुनिद विदेह ।।३६३।। रतनन निज गुण रतन से, दरसन ज्ञान स्वरूप । सत्ता चेतनता महा, प्रानंदादि अनूप ॥३६४!! ते अगम्य अति दुर्लभा, जिन करि रोर नसाय । रौरन रस अनरस समा, इह निहश्चै ठहराय ।। ३६५।। नहीं रतन की बात ह्यां, कौडिन को न्यौपार । संख सीप बहुती सदा, संखनि को सरदार ।।३६६।। निज मणि प्रापति अति कठिन, कोइक पावे धीर । सो नर है भब सिंधु में, तजै तुरत भव नीर ।।३६७।। विमल भाव परकास मय, निरमल ज्योति सरूप । ते मुक्ताफल जानिये, वस्तू अरूप अनूप ।।३६८।। तिनकौ दरसन दुर्लभा, भव सागर के मांहि । उज्जल उत्तम भाव जे, हंस न यहां रमांहि ।।३६६ ।।