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विवेक विलास
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ऋ र दिष्टि कोपाधिका, तेहि केसरी आदि । जानह भाव विकार मय, विष भरिया सरपादि ।।४२६ ।। उड़ते हैं विभाब मैं, धरहि कुपक्षः कुभाव । तेहि कुपक्षी हिंसका, तिनको तहां प्रभाव ।।४३०।। कायर चपल सुभाव जे, बन पसु तेहि मृगादि । विचरै गिर परि भै भरे, भावहि विषय त्रिगादि ।।४३१।। पातिक से नहि पारधी, प्रति परपंच स्वरूप । ते परवत परि अह निसी, फिरें महा विड़रूप ।।४३२।। कठिनि कठोर स्वभाव से, और न पाथर जोय । है पाथर को पर्वता, रतन कहां ते होय ।।४३३।। कुटिल कुत्ति कुभाव से, कंकर कोइ न और । प्राणिनि की पीड़ा करें, यह गिर तिनकी और ।।४३४।। औरन कौं नीचे गर्ने, इहै नीच यति होय । क्षुद्र अति ने कांकरी, नान्ही निश्च जोय ।।४३५।। पाथर कांकर कांकरो, तिनसौं भरयो पहार । महाकष्ट को थान इह, तू मत्ति करै विहार ।।४३६।। है कंटिक क्रोधादिका, मद गिर मांहि अगर । सदा विपक्षी हयां रहैं, मिथ्यात्वादि विकार ।। ४३७।। सोर विपक्षनि की सदा, सोर पसुनि को वोर । जोर कुजीवनि को तहां, जहां न अमृत नीर ।।४३८।। नहिं अविद्या सारिखी, विषवल्ली विपरूप । सो गिर परि विस्तरि रही. दुखदायक दुख रूप ।।४३६ ।। जाल न माया जाल सौं, यह गिर जाल स्वरूप । भरयो पाल जंजाल कौं, विकलप प विरूप ।।४४०।1 विष तरवर नवि भाव से, धरै अनेक विकार । यह विष वृक्ष मइ सदा, गरव पहार असार ||४४१।।