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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
है विषफल नरकादि जे, यह गिर विषफल रासि । सुभ को लेस न है इहां, नहिं गुण मणिया पासि ।।४४२।। विषै फूलि धन फूलि से, और न विष के फूल । फूलि रहे तरु तिन थकी, तहां जाय मति भूल ।।४४३।। सदा कुपत्र परे इहां, महा अपात्र स्वरूप । मिथ्या सूत्र कुवाय तै, उड़े फिरै जड़ रूप ।।४४४।। नहि अध्यातम तन्त्र से, अमृत तरु गिर मांहि । नहि अध्यातम ति सी, अमृत वायु लखांहि ।।४४५।। नांहि मानगिर के विर्ष, सदा प्रफुल्लित भाव ।। नांहि सुधाफल परमफल, यह गिर विषम लखाब ।।४४६।। नांहि शुद्धता सारिखी. गिर परि अमृत बेलि | विमल भान हंसानि की, तहां न कबहू केलि ।।४४७।। नहिं अमृत सरवर जहां, समरस भाव सुरूप । भरे शांत रस नीर तें, दाह हरण सद्प ॥४४८।। भाव अलेय प्रशय से, तहां सरोज न कोय । सर दिनु होय सरोज क्यौं, यह निश्चै अवलोय ।। ४४६।। भावरसज्ञ से विशसे, भमर न भमैं कदाचि । काहै मद गिर ऊपरै, रहे मूठ जन राचि ।।४५०।। नहीं मगनता भाव मथ, या परवत परि मोर । नहि कोइल कलकंठ यां, अमृत धुनि मन चोर ।। ४५१।। या गिर ते नहि नीसरे, अमृत सरिता सार । ज्ञानामृत धारामइ, प्रानदी अविकार ॥४५२।। या गिर तें आसा नदी, बांछा रूप बिसाल । निकल ममता पूरती, मानो परतषि काल ||४५३।।। इहा भरे दुख सरवरा, विष जल ते विकराल । विचरें चोर निरंतरा, मन इंद्री असराल ।।४५४।।