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विवेक विलास
ठग न धूर्त भावानि से, इहै ठगनि को थान । पर बाधक अपराध मय, वस व्याध बलवान ।।४५५।। असुर न असुभाचार से, दुराचार के राय। यह असुरनि की प्राश्रया, असुराचल कहवाय ।।४५६ ।।
दैत्य दानवा दुष्ट जन, दगादार सौ काहि । , परदुख दायक दुरित घर, रहैं वहत गिर मांहि ।।४५७।।
नहि पिसाच पापानि से, भूत न भर्म समान । वितर नहि विपरीत से, तिनको घर गिर मान ।।४५८।। इह भूतनि कौ पर्वता, है दैत्यनि की केलि । सदा पिसाचनि को पुरा, रहे निसाचर खेलि ।।४५६ ।। रागादिक रजनीचरा, परबत के सिरदार । मोहासुर असुरेस को, जिनकी भुज पर भार ।।४६७।। मदगिर मैं माया गुफा, कर मूर्छा भाव । द्रोह सिखर संसै मइ, तहां धरै मति पांव ॥४६१।। महा वधिक वाधा करा, पशू धार का क्रूर । विचरै दुर्जन भाव अति, यह गिर सुख तें दूर ।।४६२।। यहै पापगिर तापगिर, कवहन क्रीड़ा जोगि। वसे रौंद्र भावादिका, पसु नर असुर प्रजोगि ॥४६३।। मंगलकारी मूलि नहि, सर्व अमंगल भाव । यहै विधन गिर विषम गिर, धारै वहुत विभाव ।। ४६४।। काम अगनि क्रोधागनी, लोभानल विकराल । दोष अगनि दुख अनि अति, काल अगनि असराल ।।४६५।। मोह अगनि सब मैं सरस, जा करि जगत जलाय । यनसी अगनि न लोक मैं, भव भव ताप कराय ।।४६६।। सप्ताएं एइ सही, विनु समरस न बुझाय । सो समरस नहि गिर विष, सदा अगनि भवकाय ।।४६७।।