________________
११२
महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
यनसी नांहि दवानला, नहिं वडवानल होय । नहि बज्रानल विश्व में नहिं प्रलयानल कोय ||४६८६ | मोहादिक मोटी अगनि, सदा प्रज्वलित रूप । यह गर्व गिर अगनि मय, दाह रूप विड़ रूप ||४६६ ।। भ्रांति सम्मान न वाय को, वाजं जहां असार । कहिए भंझा जाहि कौं, धारे महा विकार |४७० || नहि वन उपवन सुखमई, इहां न रस को नाम । इहें मान श्रज्ञानमय, नहीं ज्ञान को काम ||४७ १ || संधि मान गिर मुनिवरा, लेय भाव भड़ लार ।
I
पहुँचे निजपुर धीर धी, जहां
एक विकार | !
यह मान गिर दोष गिर, भव वन
मांहि अनादि ।
विरसादि || ४७३ ।।
सिवपुर की दूरी सदा, जहां बसें मानाचल की तलहटी, समल सुभाव समस्त । मानाचल के आसिरी, होय ज्ञान रवि अस्त || ४७४ || वन गर्व पहार को, पढ़ें सुन जो कोय | सो मदगिर परि नहि च वढे ज्ञान सुख होय ॥। ४७५ | | ॥ इति गर्व गिर वनं ॥
निज गंगा वर्णन --
F
दोहा
गुण समुद्र गुरणनायको, सतजन सेवें जाहि । सो सर्वेसुर सनमति, नमस्कार करि ताहि || ४७६ || निज सरिता वर्णन करू, जामें स्वरस प्रवाह जाहि लखें सब दुख मटे, उपजें अतुल उछाह ||४७७ ||