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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सुख की बात अनन्त है, दुख की एकहु नाहि । यह सुख सिखरी सर्वथा, नहिं भव सागर मांहि ॥४१६।। इहै भाव गिर भूप गिर, भाव नगर के पासि । विः मनपुर थिर गिरा, हि व वन में भासि ।।४२०।। इह निज क्रीड़ा गिर कथा, उर मैं धार संत । सो क्रीड़ा. गिर : उपरै, क्रीड़ा करै अनंत ।।४२१।। क्रीड़ा नाम न और को, क्रीड़ा निज अनुभूति । जो निज सत्ता मैं रमैं, बिलसै ज्ञान विभूति ।।४२२।। वस्तु प्रमूरति चेतना, है अनूपम अविकार । आपहि निज गिर निजपुरा, आपहि सिंधु अपार ।।४२३।। आपहि निज सर निजवना, प्रापहि है रसकुप । निज विभूति वापी विष, केलि कर चिद्र प ।।४२४।।
।। इति ज्ञान निरूपण ।।
दोहा गर्व गिरि वर्णन---
मोह न मान न मनमथा, मन न वचन नहिं देहि । गेह न नेह न राग रिस, राज गव अछेह ।। ४२५।। ताहि प्रामिन भारती, अनेकांत अविकार । भाषौं मान मही धरा, नमि मुनि संजमधार ।।४२६।। नहीं मान गिर सारिखो, और विष गिर कोय । महानीच यह गर्भ गिर, नीचन को घर होय ।।४२७।। नर्दय दुष्ट स्वभाव से, और न खल निरजंच । या परवत परि बहु रहैं, जिनकै दया न रंच ।।४२८।।