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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
गयो एकदा क्रीड. राजपुत्तो,
मनोहार वागै सखा संध जुत्तो । लख्यों हूंसबाला जव चेटकान,
तव त्याय मौंप्यो कुमार तिनाने ।।१४।।
दोहा
करती क्रीड़ा सर विषै, रहती माता पास । चन पावतो तात पें, धरती महा विलास ॥१५॥ तात मात ते चेटका, वृथा विछोह्यो वाल । कौतुक कौं लीयो कंवर, चरण चूच चखि लाल ।।१६।। पोषन को उद्यम कियो, राख्यो नीकी भांति । पै या विनु क्षण एक नहि, तात मात को सांति ||१७|| शोक सहित माता पिता, सवद कर नभ माहि । वारंवार विलाप के, या में संसै नाहि ।।१८।। तत्र चेटका क्रोध करि, मारयो सर ते हंस । पापिनि के परिणाम में, होय न करुणा अंस ।।१६।। भागि गई तव हंसनी, लखि पति को परलोक । मुनि रांनि ए वात सहु, उर में धारयो सोक ।।२०।। चेटक ते अति कोप करि, पुरते दियो निकासि । कंवर थकी हू अति खिजी, जीव दया को रासि ।।२१।। रे रे पुत्र अयान त, कियो निंद्य इह काम ! कमै राखि खल चेटका, हुवौ पाप को धाम ।।२२।। अब या बालक की सही. मा सौं तुरत मिलाय ।। तव हि जयप्रय कंवर नं, दयो ताहि पहुँचाय ।।२३।। पर बहत हि करुणा करी, मात वचन उर धारि। निद्यो निज कौं अति तिर्ने, दई कुसंगति टारि ।।२४।।