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जीवंधर स्वामि चरित
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दिवस सोल मैं मात पैं, पहुँच्यो वालक सोई। लह्यो हंसनी चैन जब, निज सुत कौं अवलोय ।।२५।। चातक कौं चउमास ज्यौं, जलधर धारा जोग । करिकै अति तिरपत कर, हरै दाह दुख सोग ।।२६।। त्यौं वालक की मात सौं, जयद्रथ कंवर मिलाय । कियो सुखी सव दुख हरयो, जिन प्राज्ञा उर लाय ।।२७।। चैत्र मास ज्यों फूल कौं, कर वेलि संजोग । भानु उदै अलि कौं जथा, करै कमलिनी जोग ।।२।। त्यौं नृप सुतने हस सुत, धरधो हंसिनी पासि । पर दुख हरण समान नहि, और पुण्य की गमि ।।२६ ।। कैयक दिन घर में रहे, सुख सौं कवर सुजान । कबहु कलहि वैराग को, कारग अति भतिबांन ।। ३० ।। राज भार परिवार तजि, ने सिर परि तप भार । परम समाधे देह तजि, लह्यो सुरग सुख सार ।।३१।। सहस्रार नामा सुरग, सही बारौं होय । अष्टादस सागर तहां, सुख लहि च करि सोय ।।३२॥ भयो धर्म धो अति चतुर, तु मोबंधर नाम । हण्यों हंस चेलांनि ने, करि हिंसा परिणाम ।।३३।। सो काष्टांगारिक भयो, तिह मारचो तुव तात। युद्ध विष जोधा महा, सत्यंधर सुख दात ।।३४।। हुतौ जयंधर भूप जो, सौं सत्यंघर जानि । अर षोडस दिन से जुदी, मात थकी सुत प्रांनि ।।३।। राख्यो ताके पाप तें, षोडस वर्ष वियोग । तोहि भयौ निज मात तें, पाप समान न रोग ।। ३६।। ए विद्याधर के वचन, सुनि जीवंधर जाहि । गन्यों आपनौं मित्रवइ, अति परसंस्यो ताहि ।३।।