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जीवंधर स्वामि चरित
तिस तु कदाचित्त धर्म स्वरूपा,
दिखाती हुतौ नाथ कारुण्य रूपा । तब मैं हु स्वामी हुवो धर्म रागी,
तजे जू प्रभक्षा भयो पुण्यभागी ।।८।। करे आयु पूरी मुबो हूं प्रभुजी,
लयो जन्म विद्याघरौं को विभूजी 1 इही खेत्र मां, सुवैताडि वासी,
गयो एकदा सिद्ध कूटें विलासी ।। लखे चारणा दोय साधू महंता,
विनवता होई नमें ज्ञानवंता 1 तिहारे हमारे सुनें भी तहांजी.
तवै देखने तोहि आयो इहांजी ।।१०।। इहै ताल रोक्यो दियो ना प्रवेसा,
तवै रावरौ दर्स पायो नरेला । कहीं मैं तिहारे सुनौं भी विवेकी,
कहे प्रोधिज्ञानी करे चित्त एकी ॥१२॥ सही धातकी खंड दीपो दिप जी,
लखें सोभ जाकी सुराल छिपैजी। जहां पूर्व वैदेह क्षेत्रो विसाला,
तहां पुष्कलावत्य देसो रसाला ।।१२।। वसै पुनरीकि नृप नग्रो सुथांना,
जयंधो नृपो नीतिवांनो सुजांना । जयावत्य रांनी जयनत पूता,
सर्व जैनधर्मी धरै जे विभूता ।।१३।।