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जीवंधर स्वामि चरित
जो जीवंधर राय, पंचकायान से न्याशा जगत सिरोमरिण देव, जगजित जग को प्यारी ।। नमौं ताहि कर जोरि सिरनमि, भकति भाव उरलाय के।
सत्यंधर विजया सुनंदन, सीझ्यो सनमति पाय के 11१२७ ।। कथा का सार
पोडस दिन परमान, हंस को चालक जानें । निज माता से भिन्न, राखियो कुमति प्रयानें ।। पूरव भव के माहि, ताहि त षोडस बर्षा । मा सौं भयो वियोग, मात नहि पायो हर्षा ।। इह उर मैं धरि भव्य जीवा, सुजन विछोहा जिन करी । सकल जीव हैं आप सरिला, इह जिन प्राग्या उर धरौ॥१२१।। भई तात की मृत्यु, जनम जिन लह्यो मसाना । भयो सेठ आगमन, सेठ घरि पल्यो सुजानां ।। जषणी को अपगार, जक्ष से मित्र विवेकी। वन्यो अधिक परताप, शत्रु मारो अविवेकी ।। देव गती है प्रवल अतिही, लखो वात परत ए। जीवंधर को सुनि चरित्ता, धरौ जैन मत पक्ष ए॥१२२।। साध हुवां विन सिद्ध, हुवो नहि जग मैं कोई । सातै साध समांन, प्रांन उत्तम नहि होई ।। गही साध को पंथ, जोहि सिवपुर सुखदाई । पंच प्रकार प्राचार, धर्म दस लक्षण भाई ।। संजम वारह भेद धारौं, तप द्वादश विधि प्राचारो। अट्ठावीस जु मूलगुण हैं, ते नीकी विधि प्रादरी ॥१२३।। उत्तर गुण चौरासि, लाख हैं अानंदकारी । सहन परीसह बीस, दोय अधिका अघहारी ।।