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महाकवि दौलन राम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
घा । इसमें कोधित होकर ये भट्टारकों के विरोधी बन गये और तेरहपंथ के प्रचार प्रसार में पूर्ण योग देने लगे | इसका पुन जोधराज भी इन्हीं के विचारों का था । वह संस्कृत एवं हिन्दी का बड़ा भारी विद्वान था 1 इन्होंने सम्यक्त कौमुदी भापा (संवत् १७२४) प्रवचनसार भाषा (संवत् १७२६। पद्मनंदिपंचविणान (स. १७२४) ज्ञानसमुद्र एवं प्रीतिकार चरित जैसी महत्वपूर्मा रचनाओं का निर्माण करके हिन्दी साहित्य की बड़ी भारी सेवा की थी।
तेरहपंथियों के विरोध के बावजूद भट्टारकों के प्रभाव में कोई विशेष अन्तर नहीं आया। भट्टारखा नरेद्रकीति के पश्वाल भ० सुरेन्द्र कोनि (संवत्१७२२) जगनीति (मंवत् १७३३) भट्टारक गद्दी पर बैठे । संवत् ११६ में भट्टारक जगतकीति ने चांदखेडी । एक विशाल प्रतिष्ठा समारोह का संचालन किया जिससे उनकी प्रतिष्ठा और प्रभाव में और भी बृद्धि हुई । समाज में इन
को में पूजा पाठ, विधान आदि में इतना बाह्याडम्बर ला दिया था, जिसने समाज के प्रबुद्ध वर्ग के चिन्तन पर गहरी चोट को । समाज में अध्यात्म शैली के नाम से जो गोलियां चलती थीं उन्होंने तेरहपंथ के प्रचार में पर्याप्त महायता दी और आगे चलकर वे ही गोष्ठियां तेरहपंथ की गोष्ठियों में परिवर्तित हो गयी । महाकवि दौलतराम जव अागरा गये थे तो वहां ध्यागसली पहिले से ही चलती श्री और जब उन्होंने उदयपुर में स्त्र प्रभचन प्रारम्भ किया तो उसे भी इसी पेली के नाम से प्रसिद्ध किया ।
१६ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जयपुर में महापंडित टोडरमल का उदय हुआ। टोडरमल जी महान विद्वान श्रे, णास्त्रों के ज्ञाता थे वक्त तन कला में अत्यधिक प्रवीण थे और इन नत्रके अतिरित्त समाज सुधार में अग्रसर थे । वे भट्टारक परम्परा के पूर्ण विशेची थे और तेरहांथ के कट्टर समर्थक थे । इन्होंने इस युग में नरहपंथ के प्रत्रार में सबने अधिक योग दिया । तेरहपंच के प्रचार पं. टोअरमन्न जी के अतिरिक्त भाई रायमल्ल, दीवान रतन चन्द, दीवान बालचन्द डा.दि विशेष सहायक अने। इन्होंने ज्ञान के प्रसार के लिा विशेष प्रयत्न किये और बालक बालिकाओं को धार्मिक ज्ञान प्रदान करने के लिा कुछ विद्वानों को नियुक्त किया । भाई रायमल्ल ने अपनी एक पत्रिका में इसका निम्न प्रकार उल्लेख किया है
"और यहा देश बारा लेखक सदैव सासले जिनवाणी लिखते हैं । वा सोचते हैं । और एक ब्राह्मण महनदार चाकर रझ्या है सो बीस तीस