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जीबंधर स्वामि चरित
तब अति होय प्रसन्न विद्याधर को सुता,
दई सुघोषा वीन सुद्ध तारनि जुता ।।३।। लेके वीन प्रवीन बजाई रस भरी,
राग सूत्र अनुसारि लगाई रंग झरी । काढ़े सुर गंभीर गीत संजुत महा,
मधुर मनोहर रूप सुजस जाय न कहा ।।३६॥ सुनि करि चित्रत रहे भूचरा खेचरा,
मृग मोहित व्है महाराग मै चित धरा । या विद्या करि हुई कंबर की कोरती,
जांनी सब संसार राग मैं कीमती ।।।३७। धन्य धन्य ए वचन तेहि पहपा भये,
तिन करि पूजे कुमर पंडितनि सिर नये । हरयो गयो सुनि वीन चित्त कंवरी तनौं,
लगे काम के वान भेदियो उर धनौं ।।३८।। माला घाली कठि कंबर के खग सुत्ता,
सीलवंति मुगवति रूप करि अद्भुता । कहा कहा नहि होय पुण्य परभाव सौं,
तातें धारी पुण्य भव्य सुभ भाव सौं ।।३६।। जैसे दिन मै दीप दिपै नहि भानु पैं,
सैसे पर नर भये कंवर बहु जान पैं। भासे अति दैदीपमान निज लोक जे,
जीसंघर परताप धरै गुन थोक जे ।।४।। थकित भई लख रूप लाल की खेचरी,
एक रूप इक भाव होय करि ढिग खरी। वीन सुप्रोषा हेत पाइयो सुभपती,
करी वीन की तवै खुसी है थुति प्रती।।४।।