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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सत्य सु घोषा नाम वीन तेरौ सही,
बड़े वंसतै भई आप तोकौं चहीं । मधुरा अति रस तार चित्त की हारिणी,
कीयो कंधर मिलाप तेंहि सुखकारिणी ॥४२।। अति प्रवीन तू सखी निपुन दूती महा,
तेरेई परसाद गुरणपती पति लहा । ह्यां तो अतिरस भयो सुनौं अन्त्र सज्जनां,
काष्टांगारिक पूत सु प्रेरचो दुरजनां ।।४३।। हरणे की गंधर्ववता की जड़मती,
काष्टांगारिफ नाम कियो उद्यम प्रती। तब कुमर इह जांनि भये असवार जी,
जय गिर गज परि पाप सावता लारजी ।।४।। तब तात गंधर्ववत्ता कौं नभचरा,
गराड़वेग सुभ नाम बुद्धि मैं ततपरा । जाय परयो मध्यस्थ दुहे के सुभमती,
अति उपाय परवीन विद्याधर को पती ॥४५।।
गंधर्वदत्ता के साथ जीवंधर का विवाह-- शांत कियो दल शत्रु सरि मेटी सबै,
अति उछाह ते व्याह हुवो पुर मैं तब । जीवंधर कौं देय पुत्रिका आपनी,
हूवो अति निहचित खेचरा को धनीं ।।४६।।
दोहा
रहै कंवारी कन्यका, व्याह जोगि घर मांहि । मात तात की दूसरी, ता सम चिता नांहि ।।४७।।