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जीवंबर स्वामि चरित
पुत्री पररगावन समा नहि निचितता और 1 तातें भयो निचित प्रति, गरुड़वेग खग मौर ||४८५ || जीवंधर झर खग सुता, वढ्यो परसपर नेह । जिनके र सिंगार को कथा छेह ॥४६॥
रति स्वरूप रामा इहै, काम स्वरूप कुमार । ar किसोर नागर नवल, वय न बढ़े सिगार ||५०||
सम स्वरूप सम गुन सबै, समविद्या सम सील । क्यों न परसपर प्रोति ह्न, चित्त एक द्वय डोल ।। ५१ ।।
इति गंधर्ववत विवाह निरूपणम् ।।
चौपई
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अब ग्राई मधु' रितु प्रति चाव, मदन वरधनी मोद सुभाव ।
फूले तर बाजी सुभ वाय प्रगटो परिमल प्रति अधिकाय ।। ५२ ।।
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वन सुर मलय नांम विख्यात नंदन वन की तुल्य लखात |
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तहां चले नरपति प्रति रंग, चाले नगर लोक नृप संग || ५३ ।। निज निज संपति प्रगट दिखाय, सुख कारण ले बहु समुदाय । श्रति उछव उपज्यो वन मांहि, जाहि लखें सब सोक नसांहि ।। ५४||
इक वैश्रवरवत है साह, जाकै इनि दिनि बहुत उछाह ।
घांम ।
तमंजरी जाकै नारि, रूपवती पति आज्ञाकारि ।। ५५ ।। ताकै पुत्री सुरमंजरी, अति सुंदर अति सुंदर चतुराई स्याम लता दासी जा कनें, सुरगंजरि के गुण प्रति ले भाई चंद्रोदय नांम, करणवास महा गुरण जहां लख बहुजन समुदाय, तहां बचन यों भाषै जाय ॥ ५७ ॥ या सम और न कोई सुगंध, जांक पाय भमर संघ । यो कहि इत उत फिरती फिरें, सब गुण मैं मुझ स्वामिनि सिरें ।। ५८ ।। १ मूलपाठ रवि
भरी ।
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भनें ।। ५६ ।।