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________________ जीवंधर स्वामि चरित ४ कारि जु सनांन पहरि सुभ कपरा, धारि विभूषण बाई । फूल माल लै चरचि सुगंधा, लै भोजन सुखदाई ॥१६६।। करहु सुखनि की बात जु मसौं, मिनस्त्र जनम फल एई । भोग बिमुख मति नरभव खोवे, नव जोवन सुखसेई ।।१६७।। जौनि अनेक विष इह दुल्लुभ, ताहू मैं इह रूपा । नांही वर वनराज सारिषौ, पुरुषनि मांहि पनूपा ॥१६८।। करि अंगीकृत वनपति सुत की, चांदिनि ज्यों चंदर की। आदि चक्रिकौ राजभूगि सन. उची भर इंदर का जैसे भूषरग कलप वृक्ष सौं, लपटि रहैं ग्राभरणा। त्यौं धनराज कंवर सौं सुदरि, तन मन एकीकरणा ।।१७०।। लहि करि चिंतामरिंग कौं सुवुधी, कौंन हाथ सौं डारै। इत्यादिक दूतिनि के वचना, कन्या का मन धारै ।।१७।। जब बनराज दिखायो में अति, सुनी तात ए वाते । तव तिह दाट्यो पुत्र कुवुद्धी, करे न अधिकी यात ।।१७२।। अपनी पुत्रिनि भेली रालो, दोनी अधिक दिलासा । इह तो मौन लियां ही बैठी, परमेसुर की दासा ।।१७३।। अव द्विमित्र मित्र प्रादि सहु, भेले व्है करि भाई। सजि वजि सेन लेय के अधिकी, पाये तुरत चलाई ।।१७४।। धेरचो नगर भील को सीघ्रहि, भील हु लरिवा पाया । जब जीवंधर जीव दयाला, मन मैं मता उपाया ||१७५।। नास होयगी बहु जीवनि को, या मैं कछु न भलाई । तव चितयो मन मांहि सुदरसन, जक्ष महा सुख दाई ।।१७६॥ यादि करत ही प्रायो जक्षा, ल्याय कन्यका दीनी । कारिज सिद्धि कियो मिश्रनि की, किसहि न पीरा कोनी ।।१७।। पाप भीत जे प्रांनी ज्ञानी, करि उपाय रण टारें। काहू कौन सतावे कवही, सहज काम सुधारें ॥१७।।
SR No.090270
Book TitleMahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherSohanlal Sogani Jaipur
Publication Year
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, History, & Biography
File Size7 MB
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