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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-यक्तित्व एवं कृतित्व
काज सिद्धि करि रारि मेटि करि, चले आपने थाना । फुनि वनराज दुष्ट बुद्धि श्रुति, प्रायो लरन अयांनां ।।१७६ ।। तब ताकौं अति नीच पुरिष ललि, पकरयो जक्ष संयाने । सौंप्यो जीपंधर कौं तब तिन, दीयो बंदी स्वांन ।।१८०।। सेना रम्य सरोवर ऊपरि, किये सेन जुत डेरा । भोजम कारण चारण मुनिवर, आये सिव सुख हेरा ।। १८१।। करि वंदन विधि पूरव भोजन, दोयो जोवंधर नें । पंचाचरिज दान परभावे, पाये मुग ततपर नं ॥१८२॥ देखि दांन फल त्यागि चित्तमल, तीनहि जनम प्रवंधा । लखे भील सुत या भवताई, जिते हुते संबंधा ।।१८३|| पुत्र छूडांवन वल ले पायो, हरि विक्रम अति प्रबला । ताहू कौं पकरयो जषि ततखिण, जखि माग जन अबला १८४।। तब वनराज सबनि पें भाष्यों, सुनौं सकल ही सुवुधो । या भवतें पहली तीजै भव, हुतौ बरिणक सुत कुवुधी ।।१५।। सुवरण तेज नाम हो मेरो, जिन मारग न पिछान्यों। सेये सात विसन मैं अति ही, कीयो मन को जान्यों ॥१८६।। मरि करि मारजार हूं हूबो, इक होती जु परेवी । मैं पापी मारन कौं दौरयो, महा दुष्टमति सेवी ।।१८७।। कवहुक कोई मुनिवर स्वामी, पठत हुते जिनवांनी । तामैं चउगति दुख को वरणन, भाषत हे गुणखांनी ।।१८८।। सुनि करि बैर भाव में त्याग्यो, तजि विलाव की देहा । लह्यो भील के कुल मैं जनमा, या सौं धारचो तेहा ।।१८६ ।। सुवरण तेज जनम में मेरी, यासौं हुती सगाई । इह होती जु अनुपमा नामा, मोहि नही परणाई ।।१६०।। तातें नेह भाव ते मोकौं, उपजी हरण कुबुद्धी । सो सब माफ करौ मुझ चूका, तुम हो महा सुबुद्धी ।। १६१।।