SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व हरिवंश पुराणा पढे तिनके विना सेद मनवाञ्छित काम की सिद्धि होय पर धर्म अर्थ मोक्ष की प्राप्ति होय ।।४७|| तासे जे निष्कपट प्रायं पुरुष है ते पूजा सहित या पुराण को पृथिवी विषै विस्तारहु । कहा कर यांकू विस्तारह मात्सर्य कहिये पराई उच्चता का न सहना ऐसा अदेखसका भाव ताहि घयं के बल कर प्रबलता रूप जो बुद्धि ताके प्रभाव से निवार कर पर जेते मायाचार के पाचरण हैं तिन सत्रन को तज कर याका रहस्य विचारह ।।४।। अथवा भव्य जीवन से यह प्रार्थना है कौन अर्थ, वे स्वतः स्वभाव ही याहि पढ़ेंगे बांचेंगे विस्तारेंगे, जैसे पर्वत मेहकी धारा को सिर पर धारे पर पृथिवी विषे विस्तारे ॥४६।। यह श्रेष्ठ पुराण प्राचीन पुराण के गम्भीर शब्द तेई भय जल तिन कर पूर्ण सो मुनि मण्डली रूप नदी दोय नयन रूप दायेन की धरन हारी तिन कर पूर्ण चारों दिश समुद्रान्त विस्तरेगा ।।५०|| वे जिनेश्वर देव तत्व के द्रष्टा देवन के समूह पर सवने योग्य जयवन्त होहु प्रजा को अति शांति के देनहारे शान्त है मार्ग जिनका अर निर्मल है निद्वारहित केवल नेत्र जिनके ||५१॥ अर जिनधर्म की परम्पराय जयवन्त होहु जो अनादि काल से काहू कर जोति न जाय । पर प्रजा विर्षे कुशल होहु । वहु दुभिक्ष मति होहु मरी मति होस् पापी मति होहु पापी राजा मति होहु । अर सुख के प्रथं प्रति वर्ष भली वर्षा होहु पर अति वृष्टि अनावृष्टि मति होहु पृथिवी अन्न जल तुरण कर सदा गोभित रहो। प्रागीमको काहू प्रकार की पीड़ा मति होह ॥५२।। विक्रमादित्य को सात सौ पांच वर्ष व्यतीत भयं तब यह ग्रन्थ भया । ता समय उत्तर दिशा का राजा इन्द्रायुभ कृष्णराजका पुत्र था । पर दक्षिण दिशा का राजा श्रीवल्लभ हुता पर पूर्व दिशा का राजा अवन्ति हुता पर पश्चिम का राजा वत्सराज हुता। यह चारों दिपा के चारों राजा महा सूरदीर जीत के स्वरूप पृथिवी मण्डल के रक्षक हुते ।।५३।। कल्याण कर बडी है विस्तीर्ण लक्ष्मी जहां ऐसा श्री वर्धमानपुर तहां श्रीपार्श्वनाथ के चैत्यालय विर्षे राजा रत्न के राज विषे पह ग्रन्थ प्रारम्भ पर पूर्ण भया फिर शान्तिनाथ के मन्दिर विप ग्रन्थ समाप्त किया पूजा भई अति उच्छव भया । जीती है अर संघ की शोभा जाने ऐसा श्रेष्ठ पुन्नाट नामा संघ ताकी परिपाटी विषे उत्पन्न भये श्रीजिनसेन नामा आचार्य तिन सम्यकज्ञान के लाभ के अर्थ रचा यह हरिवंशचरित्र लक्ष्मी का पर्वत सो या पृथिवी विर्षे बहुत काल अति निश्चल तिष्ठो सव दिपि विषे सब जीवन का हरा है शोक जाने ।।४।। इति श्री अरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य गुम पर्व कमल वर्णनो नाम पष्टितमः सर्ग ॥६६॥
SR No.090270
Book TitleMahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherSohanlal Sogani Jaipur
Publication Year
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, History, & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy