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हरिवंश पुराण
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जिनेन्द्र के वंश के स्तवन कर पुण्य की उत्पत्ति है यही बांछा कर मैंने वर्णन किया और काव्य बांध से प्रबन्ध कर कीति की कामना रास्त्र कथन न फिया ।। ३५ ।। काव्य रचना के गर्ष कर तथा अन्य पण्डितों से ईर्षा कर मैंने यह प्रारम्भ न किया। केव: :: :ज की है. काम किया चौबीस तीर्थ कर और वादश चक्रधर और नव हलधर नवहरि और नब प्रतिहरि इनका वर्णन किया और अन्य अनेक राजान के चरित्र कहे । भूमिगोचरी प्रौर विद्याधर मबनके वंश का वर्णन या विर्ष है ॥ ३७ ।। जो धर्म अर्थ धाम मोक्ष के साधन हारे पुरुषार्थ के धारक धीर पुरुष कीति के पुंज तिनकी स्तुति कर मैं पुण्य उपाा गुण संचय किया ताका यही फल जियो जो या मनुष्य लोक के भव्य जीव जिन शासन विषे श्रद्धा करें पर अशुभ कर्म को हरें ।। ३८ ॥ यह नेमि जिनेश्वर का चरित्र सकल जीवादि पदार्थ का प्रकाशक है यामें पट द्रव्य सप्त तत्त्व नव पदार्थ पचास्तिकाय की प्ररूपमा है ।। ३९ ।। जो महा पण्डित हैं सो याकी समाविष व्याख्यान अपने घर पराये हितार्थ करियो पर सभा विर्षे आवे जे भव्य जीव ते कामहप हस्तांजली कर हरिबंश कथा रूप अमृतका पान करियो जिनेन्द्र नाम ग्रहणकर नव ग्रहकी पीडा दूर होय है। यह समस्त पुराण प्राधोपान्त वांचे प्रथवा सुने तो पापका नाण होय इसलिये एकाग्र चित्त कर पण्डित जन याका ब्याख्यान अपने पर पराये कृताय के अर्थ करहु व्याख्यान निज परका तारक है ।। ४२ ।। यह पुराण मंगल के अर्थियों को महा मंगल का कारण है पर जो घन के अर्थी हैं तिनकों धनकी प्राप्ति का कारण है। पर निमित्त ज्ञानियों को निमित्त ज्ञान का कारण है पर महा उपसर्ग विर्षे धारण है शन्निका कर्ता है पर जैन का बडा शकुन शास्त्र है, शुभ सूचक है ज्ञानार्थीन को शान, ध्यानार्थीन को ध्यान, योगार्थीन को योग, भोगाथियों को भोग, राज्यार्थीन को राज्य, पुत्रार्थीन को पुत्र, विजयाथींन को विजय सर्व वस्तु का यह दाता मवंज्ञ वीतराम का पुराग है । जो चौबीसों तीर्थेश्वर का महा भक्त चौबीसों शासन देवता चक्रेश्वरी पद्मावती अम्बिका ज्वालामालिनी प्रादि सम्याष्टिनी सो सब इस पुराण के ग्राश्रित है कैसे हैं यह शासन देवता सदा जिनधर्म पर जिनधन के समीप ही हैं।। ४४ ॥ पर गिरनार गिरि विर्षे श्रीनेमिनाथ का मन्दिर ताकी उपासफ सिहवानी च की बग्नहारी जाके आगे छुद्र देवता न टिकें ऐसी अम्बिका कल्यासा के अर्थ जिन शासन की सेवक है तहां परचक्र का विघ्न कैसे होय ।। ४५ ।। नवग्रह पर असुर नाग भूत पिशाच राक्षस यह लोगों को हित की प्रवृत्ति वि विन करे हैं। तातें बुध जन जिन शासन के देवतान के जे गुण तिन कर क्षुद्र देवन को शान्त करे हैं ।। ४६ || प्रक्ति कर यह