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अखिलाकारा
प्रति
अध्यात्म बारहखड़ी
श्रगम प्रतिष्टा नाथ अपारा,
खिलाधारा,
अखिल स्वरूपा अखिल सुभारा ।
अखिल जु भूपा अखिल जुपारा ॥१००॥
सुखकारा श्रमरकर,
अनवरत जु
अखिल सुसेवित स्वामि अधारा !
नत सु ज्योतिस्वर मुनि प्यारा,
श्रनत सुरश्मी तिमिर प्रहारा ॥ १०१ ॥
अनुभव मूरति तू जु कृपाला,
निज अनुभूति स्वरूप दयाला ।
तेरी परणति गुण अनुभूती,
तेरी शक्ति जु व्यक्ति प्रसूती ॥ १०२ ॥
निरंतर तू ही, व्यापि रह्यो सरवत्र समूहो ।
अनिशं नाम तिहारी स्वामी,
जपि ते नर होहि प्रकांमी ॥ १०३॥
अविरतिनाशक वृत्ति स्वरूपा,
अविरत प्रवृत्त रहित अनूपा ।
अत त्यागि तोहि जं ध्यावें,
ते जगजीवन तो मोहि श्रावें ।। १०४ ||
असि श्राऊसा मंत्र
सु तेरा,
कर्मकलंक हरी सब मेरा ।
श्रसि ग्राऊसा जिन जन जपिया,
माया मोह महा तिन क्षपिया ॥ १०५ ॥
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