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महाकवि दौलतराम कासलीवास व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अष्टापद व्याघ्रादिक दुष्टा,
तुझ दासनि परि ते नहि रुष्टा । अप्टापद कंचन हूँ कहिये,
कंचन त्यागि जु तोहि जु गहिये ।।१४१।। राष्टमि चश को वृत देवा.
तू ही जग मैं मगर करेवा । तू अष्टांग दंडवत योझा,
अष्टक स्वामि अहद अरोझा ।।१४२।। अठमल सम्यक के तू नास,
तु अध्यातम रूप विकास । नेकत सर्व स्वरूप तुम्हारा,
अतिमित दोष हरी जु हमारा ।।१४३।। प्रष्ट भेद है वितर देवा,
तिन मैं इद्रादिक वसु भात्रा । योतिष सुर जे पंच प्रकारा,
एउ शादिक अठ धारा ।।१४४।। भवनपती दश भेद कुमारा,
सुर्ग निवासी दोय प्रकारा । सुर्गपती अर भक्तपती जे,
तिनमैं इद्रादिक दश लीजै ।।१४५।।
पायससित लोक जु पाला,
योतिष वितर ते ए ठाला । भव नर सुर्ग मांहि दश भेदा,
तेईसौं अहमिद अभेदा ।।१४६।।