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विवेक विलास
मोह वसाय अनादि को, भमैं भूपाल प्रयाग । इक छोड़े इक पुर गहै, मोह प्राण परमाग ।।८३७।। कुबुद्धि सारिखी और नहि, जग मैं काइ कु नारि । सो पटरानी रान के, बैठी राज विंगारि ।। ८३८।। घर खोवा धरणी इहै, कलह कारणी जोय । पापारंभ प्ररूपरगी, कहां भलाई होय १८३६।। भयो कुमति के भूप सि, नहीं वृद्धि को लाम । परचौ राव परमाद मैं, नहीं धरम सौं राग ।।८४०।। महा मोह निद्रा जिसी, निद्रा और न नीच । सो सठ भूपति सदा, मोह नींद के बीच ।।८४१।। धूमैं नृप बेसुधि भयौ, मोह वारुरपी पीय । परयौं भर्म की पासि मैं, पिरथीपति टुक जीय ।।८४२।। कुबुधि सुता है मोह की, जाइ ममता मात । चाहै मोह प्रकास ही. अति अघ सौं न उरात ।१८४३।। नहि प्रताप पति को चहै, निहिपति को विस्वास । सरै भूप कुबुद्धि लें. धरै मोह की ग्रास ।१८४४।। है कुभाव मंत्री कुटिल, मोह मिलाऊ जोइ । नृप कोउ दोन बांछइ, स्वामि दरोही सोइ ।।८४५।। विषयनि के अनुराग मैं, राख्यौ राय लगाय । ग्मैं सदा सव कुमति वसि, सुधि बुधि बिसराय ।।८४६।। नहि कुभाव' सौकलि विर्ष, और कुमंत्री कोय । चौर को पूठी रखा, कहां भलाई होय ।।८४७।। घोरन नहीं इंद्रीन से, है तिनही को जोर ।। ने कुभाब के वलि सदा, करै कर्म अति घोर ।1८४८|| चौरें अहि निसि नृपति घर, डर नहि राखें मूलि । रंच न दीखे गुण रतन, देखो नृप की भूलि ।।८४६।।