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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
निज दौलति अनुभूति है, ताहि विलसवे काज । छाई राज विभूति सब, सो पंडित सिरताज ॥८२७।।
।। इति प्रतराप्तमा ज्ञान राज वर्णनं ।।
दोहा वहिरात्मा दशा वर्णन
विहिर मुख वहिरात्मा, लखें न जाको रूप। अंतरातमा अति रहैं, सो परमातम भूत ।।२८।। करि बदन ताके चरण, लेय सरगा सिद्धांत । भाषौं वहिरातम दसा, दोस रूप एकांत ।।८२६।। मूढ़ महा वहिरातमा, धरै द्रिष्टि बहिरंग । गर्ने प्रापने कर्म जड़, गर्ने अपनी अंग ।।८३०॥ ता सम सठ नृप और नहि, करै राज वेडंग । बारावाट कुठाट सन्न, सदा कुबुद्धी संग ।।८३१॥ पराधीन बरतै महा, नहीं राव की जोर । राव मोह के फंद मैं, परयो सहै दुख घोर ।। ५३२।। राजथान नहि निश्चला, भटक भव बन मांहि । सुर नर नारक पसु पुरा, थोरे दिन रह वाहि ।।१३।। का कर्म महोप कौं, देह वेगतै वेगि । सदां भोगवै भूप दुख, नही राज वल तेगि ।।८३४।। ते गन ज्ञान ज्योतिसी, सो नहि नृप के हाथ । कायर कुटिल सुभाव सहु, ते भूपति के साथ ।। ८३५।। काची गढी न कायसी, विना धक विनसाय । बस तामहै भैमयी, अलप काल रहवाय ।।८३६।।