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________________ पग-पुराण-भाषा पाये । पर जो जिनेंद्र की प्रतिमा विधि पूर्वक करावं सो सुर नर के सुख भोग परम पद पावै । व्रत विधान' तप दान इत्यादि शुभ चेष्टनिफरि प्राणी जे पुष्य उपाजें हैं सो समस्त कार्य जिनविद कराने के तुल्य नाहीं । जो जिनबित्र करायै सो परंपराय पुरुषाकार सिद्ध पत्र पावं । पर जो भव्य जिनमंदिर के शिखर चढ़ावे सो इद्र धरणेद्र यादिक्र सुख भोग लोक के शिखर पहूँच । पर जो जीरगं जिन मंदिनिकी मरम्मत कराब सो कर्मरूप अजीरशंकू हर निर्भय विरोग पद पावं । पर जो मधीन चैत्यालय करार जिनबिंब पधराय प्रतिष्ठा कर सो तीन लोक विर्षे प्रतिष्ठा पावै । पर जो सिद्धक्षेवादि तीर्थनिकी यावा कर सो मनुष्य जन्म सफल करें । पर जो निनप्रतिमा के दर्शन का चितवन कर ताहि एक उपवास का फल होय, अर दर्शनको उद्यम का प्रभिसाषी होय सो बेलाका फल पावै । पर जो चैत्यालय जायवे का प्रारंभ करें, ताहि तेला का फल होय । पर गमन किए चौला का फल होय । पर कछुएक मागे गए पंच उपवासका फल होय, प्राधी दूर गए पक्षोपवास का फल होम पर चैत्यालय के दर्शन तें मासोपमास का फल होय । अर भाव भक्ति कर महास्तुति किए अनंत फलकी प्राप्ति होस । जिनेंद्रकी भक्ति समान और उत्तम नाहीं । अर जो जिनसूत्र लिखवाय ताका व्याख्यान करै करावै, पढ़ पढ़ाई, सुनै सुनावै, शास्त्रनिकी तथा पंडितनिकी भक्ति करें, वे सर्वाग के पाठी होय केवल पद पावें । जो चतुर्विध संघ की सेवा कर सोचतुति के दुःख हर पंचमगति पावं 1 मुनि कहै हैं-हे भरत ! जिनेन्द्र की भक्ति पर कर्म क्षय होय भए प्रक्षयपद पावै । ये वचन मुनि के सुन राजा भरत प्रणामकर श्रावक का व्रत अंगीकार किया । भरत बहुश्रुत अलिधर्म महाविनयवान श्रद्धावान चतुविध संघक्त भक्ति कर भर दुःखित जीवनि दमाभाव कर दान देता भया। सम्यग्दर्शन रहल कु उर विर्षे धारता भर महासुन्दर श्रावक के प्रत विषं तत्पर न्यायसहित राज्य करता भया। भरत मुगनिका समुद्र ताका प्रताप पर अनुराग समस्त पृथ्वी विर्षे विस्त रत्ता भया । ताके देवांगना समान राणी तिन विर्व प्रमक्त न भया, जल में कमल की न्याई अलिप्त रहा। जाके चित्त में निरंतर यह चिता घरले कि कब पति के व्रत धरू, निन्थ हुया पृथिवी विषं विचरू । धन्य हैं दे धीर पुरुष जे सर्व परिग्रह का त्याग कर तप के बल कर समस्त कर्मनिक भस्मकर सारभूत जो निर्वाण का सुख सो पायें हैं। मैं पापी संसार विर्षे मम्न प्रत्यक्ष देखूहूँ जो यह समस्त संसार का चरित्र क्षरणभंगुर है। जो मभात देखिये सो मध्याह्नविर्ष नाहीं। मैं मूढ़ होय रहा हूं। जे रक विषया
SR No.090270
Book TitleMahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherSohanlal Sogani Jaipur
Publication Year
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, History, & Biography
File Size7 MB
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