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____महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
लहरि न लोभ तरंग सी, ते भव मांहि अनंत । विष तरंगनि सौं भरयो, दुख दोषनि को कंत ।।३१६।। नंदी न पासा सारिसी, पाकुलता जल पूर । मिल सकल भव सिंधु में, रहै जीव अति ऋ र ॥३२०॥ भवरणन भ्रम सौ और को, उहै भवरण भ्रम रूप । भव समुद्र विड़ रूप अति, कहै महामुनि भूप ।।३२१।। याकै तटि तरवर विषा, विषम भाव अघ रूप । तिसे कुत्रक्षन और को, कंटिक रूप कुरूप ।।३२२।। बाधा सी विष वेलि नहि, विकलप से नहि जाल । ते भव सागर के नष, दीखे अति विकराल ॥३२३11 बन उपबन दुख फल भरे, भव सागर के तीर । माया ममता मूरछा, बन देवी है बीर ।।३२४।। अमृत तरु सम भाव जे, ते सागर तटि नाहि । अमरग फल को नाम नहि, मरण सदा भव मांहि ।। ३२५।। अमृत वेलि न विश्व मैं, निज अनुभूति समांन । सौ भव सागर सौं सदा, है अति दूर निधान ॥३२६।। संस विभ्रम मोहमय, धारै असुर अपार । अति अथाह गम्भीर है, फैकट फे न असार ।। ३२७॥ आदि न अंत न मध्य है, भव सागर को पीर । कोइक उधर धीर नर, तिरं भवोदधि नीर ।।३२८।। मीनन लम्पट त्रपल से, तिनको अति विस्तार। मीन ध्वज से धीवरन, पाय सुरूप अपार ॥३२६॥ धारश्यां विकलप जाल जे, भाव महा विकराल । पकरें चपल मन मीमक्रौं, करें बहुत वेहाल ॥३३० ।। नहि दादर दुरबुद्धि से, वकवादी चल भाव । तिनको तहां निवासि हैयह भासे मुनिराव ॥३३१॥