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विवेक बिलास
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निष्ठुर भाव कठोर जे, तेहि काछिवा जांनि । भरयो जलचरादिक थकी, "जल निधि मांनि ॥३३॥ अति पालस परमाद से, सूसि और नहिं कोय । कर्म बंध पर वंध से, नहिं तांतूणि जु होय ॥३३३।। मगर मछ नहि काल सौ, गिल जगत कौं जोय । भव सागर मैं सो रहै, वचै कहां ते कोय ।।३३४। महा नून प्रति तुछ वति, हीन दीन भव भाव । तेहि भोंगरा जानिये, तिनको बहुत लखाव ।।३३५।। कीट न विष कषाय से, महा मलिन दुख दाय । काई कर्म कलंक सम, और न कोई कहाय ।।३३६।। कुड कलंक कलेस मय, भव सागर भय सिंधु । कोइक उधरे साधवा, रहित सकल परवंध 11३३७।। मांछर मछर भाव जे, डांसर दुसह सुभाष । सागर तीर अपार हैं, यह दुख को दरियाव ।। ३३८।। थलचर जलचर नभचरा, घिरचर जग के जीव । भरचो सदा सव भूत तें, जामैं बहुत कुजीव ॥३३६।। जामण मरण करें सदा, दुख देखें मति हीन । कोइक मुनिवर पार ह्व, निज प्राप्तम लवलीन ।। ३४०।। त्रिविधि ताप संताप तुल, बड़वानल नहि कोय । सोही भवानल भव विष, सदा प्रज्वलित होय ।।३४१।। जैसे जल को सोसइ, वडवानल जल मांहि । तैसे इह जीवन जला, सोसै संस नाहि ।।३४२।। इह नाही रतनाकर।', दोषाकर दुख रूप ।। खानि महा मद्यानि की, मकरा कर विडरूप ।।३४३।। दुरनय पक्षी सारखे, नाहि कुपक्षी कोय । करें तेहि पति कुसवदा, सदा सोर अति होय ।।३४४।।