SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 380
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ महाकवि दौलतराम कामली वाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व समय होय आया तब यह पतित्रता रोजसों उत्तर पति के पाय पलोटने लगी, रात्रि व्यतीत भई, सो सुप में जानी माहीं । प्रातः समय चन्द्रमा की किरमा फीकी पड़ गई। कुमार पानंद के भार में भर गए पर स्वामी को प्राज्ञा भूल गए, तब मित्र प्रहस्त ने, कुमार के हितविर्षे है चिन्न जाका, ऊंचा शब्द कर वसंतमाला को जगाकर भीतर पटाई पर मंद मद यापहु सुगंधित महल में मित्र के समीप गए । अर कहते भए, हे सुन्दर ! उठो, अब कहा सोचो हो ? चन्द्रमा.भी तिहार मुक कांति नहि होप ना है । यह बनन मनाकर पवनजय प्रबोध को प्राप्त भए । णिथिल है शरीर जिनका, जंभाई लेते, निद्रा के आवेशा करि लाल हैं नेत्र जिनके, कानोंको बाए हाथ की तर्जनी अंगुलीसों खुजावते, खुले हैं न जिनके, दाहिनी भुजा संकोचकरि अरिहंतका नाम लेकर सेजसों उठे, प्राणप्यारी प्रापके जगनत पहिले ही सेजसों उतरकरि भूमिथिों विराज है, लजाकर नम्रीभूत हैं नेत्र जाके, उठते ही प्रीतम की दृष्टि प्रियापर पड़ी । बहुरि प्रहस्तको देख कार, "प्रावो मित्र' शब्द कहकर सेजसों उठे । प्रहस्त ने मित्रसों रात्रि की कुशल पूछी, निकट बंटे, मित्र नीतिशास्त्रके वेत्ता कुमारसों कहते भए कि हे मित्र ! अ३ उठो, प्रियाजी का सम्मान बहुरि प्रायकर करियो, कोई न जाने मा भांति कटक में जाय पहूँचै अन्यथा लजा है। स्थतपुरका धनी किन्न गीत नगर का धनी रावण के निकट गया चाहै है सो तिहारी प्रोर देखें है । जो वे प्राग आई तो हम मिलकर चले । प्रर रावण निरतर मंत्रियोंने पूछ है जो पवनजय कुमार के डेरे कहां हैं घर कब प्रायेंगे, तास अब आप शीघ्र ही राषशा के निकट गधारो । प्रिया जीसों विदा मांगो, तुमकों पिता की अर रावण की प्राज्ञा अवश्य करती है। कुशल क्षेमसों कार्यकर शिताव ही पात्रंग तब प्रारप्रियामों अधिक प्रीति करियो । तब पचनंजय ने काही, हे मिथ ! ऐसे ही करना । ऐसा कहकर मित्रको तो बाहिर पटाया अर पाप प्राण वल्लभासों अलिस्नेहकर उरसों लगाय कहते भए. हे प्रिये ! अब हम जाय हैं, तुम उद्वेग मत करियो, थोड़े ही दिनोंमें स्वामी का कामकर हम आवेग, तुम मा नंदसों रहियो । तत्र अजनासुन्दरी हाथ जोड़कर कहती भई, हे महाराजकुमार ! मेरा ऋतुरामय है सो गर्भ मोहि अवश्य रहेगा । पर अबतक अापकी कुपा नाहीं हुती, यह सर्व जाने है सो माता पितासों मेरे कल्याण के निमित्त गर्भका वृत्तांत कह जावो । तुम दोधंदी सब प्राणियों में प्रसिद्ध हो । ऐसे जब प्रियाग कह्या तब प्राणवल्लभाकों कहते भए । हे प्यारी ! मैं माता पितासों विदा होय निकस्या सो प्रव उनके निकट जाना बन नाहीं, लज्जा उपजे है । लोक मेरी चेष्टा जान हंसेंगे, तात जब तक तिहास
SR No.090270
Book TitleMahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherSohanlal Sogani Jaipur
Publication Year
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, History, & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy