________________
४०
महाकवि दोलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
को लिख कर जैन इतिहास पर विशेष प्रकापा डाला | बखतराम का "मिध्यात्य खलन" महापंडित टोडरमल के सुधारवादी विचारों का जबाव था।
समाज में पंचायत प्रथा का जोर था। पंचायत की प्राजा बिना कोई भी सामाजिक एवं धार्मिक कार्य नहीं होते थे। समाज एव जाति से बहिष्कृत करना इनका साधारण कार्य था । जयपुर में ऐसो ही चार पंचायतें थी जिनमें दो पंचायत तेरहपंध तथा दो बीसपंथ अम्नाय वाले श्रावकों की थी । जयपुर में पाटोदी का मन्दिर, चाकसू का मन्दिर, बड़ा मन्दिर एवं वीचन्द मी मन्दिर क्रमशः बीस एवं तेरह पंथ प्राम्नाय के पंचायती मन्दिर कहलाते हैं।
जयपुर नगर में जैन समाज का अत्यधिक प्रभाव था। शासन में उनका पूरा जोर था और अधिकांश दीवान जैन ही हुमा करते थे। यदि हम सबत् १८१८ से १८२६ तक के समय को इतिहास में से निकाल दें तो फिर शोष समय में जयपुर के शासन में सदैव जैनों का जोर रहा और यही कारण है कि देश में किसी भी नगर में इतने जैन मन्दिर एवं चैत्यालय नहीं हैं जितने जयपुर में मिलते हैं। संवत् १८२१ में लिखी एक पत्रिका में जयपुर नगर का जो वर्णन किया गया है वह इस दृष्टि से उल्लेखनीय है
और ई नम्र विर्ष सात विपन का प्रभाव है। भावार्थ ई नग्न विष कलाल कसाई वेश्या न पाइए है और जीव हिंसा की भी मनाई है । राजा का नाम माधवसिंह है ताक राज विषं वर्तमान (इस समय) एते कुषिसन दरबार की प्राज्ञात न पाईए हैं। पर जैनी लोग का समूह बस है । दरबार के मतसद्दी सर्व जैनी हैं और साहूकार लोग सदं जनो हैं जद्यपि और भी हैं परि गौराता रूप है मुख्यता रूप नाही । छह सात वा आठ वा दस हजार जैनी महाजनां का घर पाईए है। ऐसा जैनी लोगां का समूह और ननविर्ष नाही और इहां के देश विर्ष सर्वत्र मुस्थपणं श्रावगी लोग बसे है तात एह नम्र व देशा बहोत निर्मल पवित्र है । तात धर्मात्मा पुरुष बसने का स्थानक है। प्रबार तो ए साक्षात् धर्मपुरी है ।"
महापंडित टोडरमल जी के पश्चात् जयपुर नगर में जितने भी पंडित एवं शास्त्रों के झाता हुए उनमें प्रमुख तेरहपंथ आम्नाय वाले थे तथा टोडरमल के गहरे प्रशासक थे । इन विद्वानों में पंडित जयचन्द जी छाबड़ा, पं० गुमानीराम भावसा एवं पं० सदा सुख कासलीवाल के नाम विशेषत: उल्लेखनीय हैं। लेकिन धीरे-धीरे तेरह और बीस पंथों का वैमनस्य समाप्त होने लगा और इच्छानुसार पंथों को मानने को स्वतन्त्रता दे दी गयो । यही कारण है