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अध्यात्म बारहखड़ी
अश्व जु स्पंदन हस्ति सुपाय, कदेव हार को बातार
सब सेना से रहित जु स्वामी, सेनाधर
प्रतिसे जगके दासन मांगै,
सेवें दरबार ॥ ४०५१३
दे अतिशय चउतीस जु मोहि ।
अष्ट जु प्रातिहारह हो,
केवल दे विनऊ कहा तोहि ॥ निश्चै,
तू अतिशय तन चिदघन होहि ।
देहु अनंतचतुष्टय
अतिशय प्रतिहार नहि देतो,
अनंत चतुष्टय दं प्रभु सोहि ॥ ४०६ ॥
हूं जु ग्रजांण जांन तु करई,
निज संपति दे श्री भगवान | अभविन पावै तेरों पुर जो,
तू भवितार कहे प्रति जांन ॥
लु प्रतिध्येय
तू जु अभीरु भीरू न पाव,
अभिध्येयो तु है प्रभिधान । अहमेवादिक तो मैं नांही,
तू अभिधाता अनुपम भांत ।।४०७ ।।
सु तू प्रतिज्ञेयो, अप्रमेय तू है प्रतिभेय ।
अदभुत सार जु तू शिव सारो,
अतिशय सागर है जु श्रय ॥
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