________________
अध्यात्म बारहखड़ी
तू तो जिन एक रूप दोय रूप भाव तेरौ । तेरी पुर शुद्ध रूप जहां वस कालनां । मोह नाहि द्रोह नाहि नाहि जु विभाव कोऊ । जहां तु बिराजै देव सबै भ्रम जालनां ॥४३० ॥ असि धारी तू जु नाहि, खग्ग नांहि तेरे हाथ खग्ग धारा सम जिन, भारंग प्रकाश तू ! शस्त्र वस्त्र नांहि तेरै, अस्त्रको न नाम कोऊ दूष न भूषन, जो भूख को विनाश तु । अस्पादिक भेद जे सु जीविका उपाय नाथ कर्म भूमि, लागत जो आदि ही विभासत् ।
सुधारी प्रांगण पावें मोष तोहि जपि मोक्ष की जु दाता एक दीखे स्व विलाश तु ॥ ४३१॥
अरुण प्रकास होय ताकेँ पहली जु नाथ, उठि भव्य जीव तेरौ नाम उर मैं धरं । मध्यकाल सायंकाल अरध निसाजु मांहि, तोही सौं लगाय चित्त कांम क्रोध को हरै | अनंदन बांबरातू अनडन तोस और, सुर नर मुनिजन तो हो क्यों जप्यो करें | तूही एक ज्ञान रूप चेतना निधान देव | तो ह्रीं की जु ध्याथ साधु बेगि भौ दधी तरं ॥। ४३२ ।।
सोरठा
मेरे टारि जु देव, अनिरक्षा अनिगुप्तमय | अकस्मात दे सेव, अमरण अमृत देहु मुझ ।।४३३ ।। तू जु अकार स्वरूप, सर्वाक्षर मय देव तू | ब्रह्मरूप जग भूप, दौलति करण जुनु सही ।। ४३४ ।।
ર