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अध्यात्म बारहखड़ी अस्मिन् भवधि माहि, रागादिक जे क्षार जल । तो विनु दुजो नाहि, अमी देन हारै प्रभु ॥४३५।। अमी जु अमृत नाम. न जु अमी और सु नही । अमी सांधबो राम, तोहि त्यागि ओर न जपें ।।४३६।। अर्थ अमी को एह, विद्यमान को नाम है। अमी सुधा हु कहेह, तो सौ नाहि अंमी जु को ।।४३७।। अवग्रह ईहा और, फुनि अवाय जु धारणा । मतिज्ञान के दौर, तीन शतक छत्तीम जे ||४३८।। तिनको भाषक एक, केवल रूपी देव तु । तेरो इह जु विवेक, जड चेतन न्यारे करै ।।४३६ ।। तू हि अनुत्सेको जु, उत्सेको गर्व जु सही। तू गर्वारि जिनो जु, मांनी तोहि म पांवही ।।४४० ।। नाम रहित को ठीक, कहैं अपेत जुप्रय मैं । तू जु अपेत विलोक, सत्य उपेतो तू सही ।।४।।