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श्रीपाल चरित्र
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पट भूषण माली कूदीये, प्रष्ट द्रव्य अपने कर लीये । पुर में आनन्द भेरी दिवाय, नगर लोक अरु बंधु मिलवाय ||११|| बहु सबद उछाह जय लाय, पहुंचे समोसरन में प्राय । तीन प्रदत्यरणा दे नर ईस, गये मांहि निज नायो सीस ।।१२।। अष्ट दरब ते पूजे राय, फिर बहु भक्ति करी अधिकाय । गोतमादि गणधर कु नयो, मनख थान फिर बैठत भयो ।।१३।। तब जिनवर की बारगी खिरी, दिव्य ध्वनि अतिसै करि भरी । पुन्य पाप मुनि श्रावक धर्म, तत्वादिक के भाखे मर्म ॥१४॥ देव मनख तिर्यच बहु जान, देस देस नर को भी वानि । दिव्य ध्वनि प्रतिसें करि खिरी, भिन भिन जीत्र समझि चित धरी ।।१५।। जो संसै ता जीव उर होय, ताको ज्वाब परनमे सोग । अधभुत रचना जिन को बानि, श्रेणिक देखि हरष अति मानि ।।१६॥ फिरि श्रेणिक जिनक सीस नाय, ऐसे बिनती करी सुभाय । सीधचक्र पूजा करि सोय, को फल किन भनि पायो जोय ।।१७।। ताकी कथा सुनन को चाव, भाखो देव दया रस भाव । तब जिन ध्वनि विन प्रक्षर खिरी, अर्थ गंभीर सकल रस भरी ॥१५॥ सुणि गोतम गणधर मुनि ईस, भाखे कथन नवों निज सीस । उर थिर पान निसुनो सब कथा, भास्त्रत गरणी भई विधि यथा ।।१६।। जंबु दीप नाभि सम मेर, ताकी दक्षण दिसा भ्रतहेर । तामें षट खंड पंच अनार्ज, आरज एक तहां सुस्त्र कार्ज ।।२०।। मालत्र देस उजेणी ग्राम, तहां जिनवर के अति सुभ धाम । भोजन तहां मुनी नित करे, धर्म ध्यान 'जुत जन अनुमरे ।।२१।। सब जिन भक्त वारणी जिन भने, खान पान धन आदिक घने । परस परे सब हो जिन हिते, पुर कटुंब सुखी गुण किते ।।२।। पुर में दीन नरा नहि कोय, सब ही जीव पुन्याधिप सोय । सब जन कोमल सज्जन भाय, मानों भोग भूमि जन प्राय ।।२३।।