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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जाक 'वसुधरा' रानी, पुत्रो 'श्रीचंद्रा' जानी । सो नवयोवन वुद्धिबंती, अति रूपवती गुणवंती ।।७।। इक दिन निज घर आंगन मैं, देखे क्रीडत हित मन मै । द्वै जाति परेवा भारी, जिन मै इक नर, इक नारी ।।७।। तिनकौं लखि मुरछा आई, जाती समररण उपजाई । तव हुती सहली पारो, ते भई सकल दुख रासे ।।८।। चंदन खस सीतल पानी, विझनादि झवकि मतिबांनी । संबोधि ताहि सुभ बचना, मेटी मुरछा की रचना ।।८।। सुनि मात-पिता सुखदाई, कन्या को सखी बुलाई 1 जो अलक सुदरी नामा, अति चातुरता गुणधामा ।।२।। है तिलक चंद्रिका कोया, पुत्री अति चेतन होया। तासौं भाष्यो हे सुमती, तो ढिग उपजे नहि कुमती ।।३।। पुत्री की प्रारण समाना, है सखी महा गुणवांना । करि मुरछा को उपचारा, तू पूछि सकल परकारा ।।४।। तव इह कन्या पैं जाये, पूछन लागी समुझाये । तू देवांगन सी कन्या, कहि मुरछा कारण धन्या ।।८।। जब श्रीगंधा यों बोली, तो मां है बुद्धि अतोली । इह नाहि काढू कहवा की, अति परछन वात हिया की ।।१६।। तौ पनि मैं तो सौ भाषौं, कछु भाव छिपाव न राखौं । प्रागनि सौं अधिकी प्यारी, तू कबहु न मोसौं न्यारी।।७।। करि समाधान चित सुनि तू, मेरे मुस्ख को सब धुनि तु । निज पूरव भव संबंधा, भाषौं सब ही परवंधा ॥८८|| मुहि उपज्यो जाती समरा, उर धरि तू विवरा हमरा । असें कहि वात सूनाई, करि भिन्न भिन्न समझाई । इह सुनि वृत्तांत जु जब ही, उर मैं अवधारधो सव ही। तब ही जु गई तजि ता पें, कन्या के मात पिता पै ।।१०॥