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जीघर स्वामि चरित
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जिन सबकी कला समस्ता, जीवघर दई प्रसस्ता । निन ही के पृष्य प्रभावा, तिष्टे गुन निपुन सुभावा ।।६५।। ए जाही ठौहर जावे, ता ठौहर सव सुख पावै । अव सुनौं वात इक भाई, गंधर्षता सुखदाई ॥६६॥ जीपंधर कौं लखि जाब, सबसौं परछन्न हि पावै । इछा ह्व मन की जबही, देखे निज पति को तवही ।।६७।। नहि पति कौ मुषि यामी, नहि और लखें गति ताकी । अति सीघ्र हि घर तें आचे, अर तुरत हि पाछी जावे ।।६८।। इक दिवस लखी देवर ने, नबाब महामति घर में । तब पूछयो तू कित जावे, काहू कौं नाहि जतावै ॥६६॥ हम हूं कौं ले चलि माई, जा दिसि तू गमन कराई। तब बोली खेचर पुत्ती, अति विद्या गुण करि जुत्ती ॥७०।। जो तेरी इछा बीरा, सौ सुनि तू इक चित धोरा । जा दिसि को मेरौ गमना, ता दिसि तू पहुँचै सुमना ।।७१|| देवाधिष्ठित गुणधामा, इह समर तरंगणि नामा । सज्या है अति सुखदाई, या परि विधि पूर्वक भाई ।।२।। निज बड़ भाई कौं ध्याये, करि सयन तहां तू जाये। यह सुनि भावज के वचना, ताही विधि कीनी रचना ।।७३।। सज्या परि सूते निसि को, चित धरि भाई को दिसि कौं । तब ही जु भोगिनी तुरता, विद्या प्रति सतिनि जुगता ।७४।। सज्या जुत भाई पासे, ले गई महा गुण रासे । जब मिले परसपर दोऊ, इक जिन मारग के जोऊ ।।७।। सुख पूछि उभै हितररसी, हूये इक ठोहर वासी । प्यारे भाईनि को मिलिबौ, या सम नहि मन को खिलिदी ।।७६।। अब याही देस मझारा, इक नगर सोभपुर भारा 1 दृढ़मित्र भूपाल पवित्रा, ताके निज भात सुमित्रा ।।७।।