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विवेक विलास
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नहि अविवेक स्वभाव मय, मींडक चपल विरूप । नहीं विषं की वासना, अति कुवासना रूप 1।७४४।। पर निंदक परपूठि जे, निष्ठुर दुष्ट स्वभाव । तेहि काछवा जानिये, तिनको नांहि लखाव ।।७४५।। "मथ्या मारा पक्ष प्रा नेदि पक्षी कुर। ते न करें संचार ह्यां, हिंसक भाव न मूर ।।७४६।। दुर्जन भाव न दोष मय, दुख को नाम हु नांहि । सुख की बात अपार हैं, रमण कूप के मांहि ।।७४७।। नहीं सर्प कंदर्प ह्या, चोरन चाहि स्वभाव । छल परपंच न वचका, विपरीती न विभाव ।।७४८।। दृष्टि न पसरै देव्य की, दैत्य न काल समान । एक न कंटिक पाइए, क्रोध न लोभ न मान ।।७४६।। रमैं प्रातमा राम निज, सत्ता रमा समेत । केलि कूप है इह महा, संतनि को सुख देत ।।७५०।। लखि बौलति अबिनस्वरा, परम भाव फल वेलि । निज बोलसि ल स्त्रियां विना, नही होय रस केलि ।।७५१।। इह वर्णन रस कूप को, पहें सुनै जो कोय । सो निकस भव कूप तें, निज रस रसिया होय ॥७५२॥
॥ इति रस कूप वर्णनं ।।
दोहा
भव कुप वर्णन -
प्रभु निकासि भव कूप तें, पहुचावं निज थान । प्ररणमै जाहि पुरंदरा, चक्रेसर निधिवांन ॥७५३।।