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महाकवि दौलतगम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
विप कूपन भवकूप सौ, यह दुख कूप विरूप। अंध कूप यासौं कहैं, महा मुनिनि के भूप ॥७५४।। जिसी अविद्या वासना, तिसी कुवास न कोय । भरचौ महा दुरगंध सौं, विषम कूप है सोय ।।७५५।। विष नहि विर्षे विनोद सौं, मरण अनंत प्रदाय । यह विष पुरण दुखमइ, जाहि लखें सुधि जाय ॥७५६।। नहिं पियूष संसार मैं, अनुभव सौं अविकार । इहां न अमृत वारता, विकलप जाल अपार ।।७५७।। कीचन कोइ कुभाव सौ, भरची कीच ते कूप । लोभ पिसार रहै जहां, गोह:सुः है विभ्रम भूत घनै तहां, दोष दैत्य को थान। रागादिक रजनीचरा, बिचरं पाप निधान ।।७५६।। नागन पिसुन सुभाव से, तिनकौं तहां निवास । चोरन चित अभिलाष से, हरै धरम धनरास ॥७६०॥ ठग नहि छल परपंच से, तिन ही की ह्यां केलि । फूलि रही अति विषमइ. विष बासना वेलि ।।७६१।। याके तटि विष वृक्ष वहु, विषै विकार विरूप । छाय रहे कंटिक मइ, माया जाल कुरूप ॥७६२।। ठगे जाहि सुर असुर नर, कोइक उवैर धीर । ज्ञान विराग प्रसाद तें, जा ढिग संजम धीर ।।७६३।। पापी जन पाखंड से, और दूसरे नाहि । ते लूटे परगट इहाँ, रंच न संक घरांहि ॥७६४।। वदपारे क्रोधादि से, मार सुग्न पुर बाट ।
ते डार दुख कूप मैं, तिनकै क्रूर कुठाठ ।।७६५।। । नहि विसास घाती प्रवर, मदन सारिखी कोय । ...
रंचक भोग दिखाय खल, दे अनंत दुख सोय ।।७६६।।
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