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________________ पप-पुराण-भाषा २७७ = जानो हो कि क्षत्रियन का नियम है जो वचन न चूक ; जो कार्य विचाऱ्या ताहि पोर भांति न करें। हमारे तात ने जो वचन कहा सो हमकू पर तुमकू निवाहना, या बात विर्ष भारत की प्रीति न होयगी। बहुरि भरतसू कहा कि हे भाई! तु चिता मत कर, तू अनाचार शक है सो पिता की माझा भर हमारी प्राशा पालवेतै अनाचार नाहीं । ऐसा कहकर बनविर्ष सख राजनिके समीप भरत का श्रीराम ने राज्याभिषेक किया कर केकई प्रणाम कर बहत स्तुति कर वारंवार संभाषण कर भरतकू उरसू' लगाय बहुत दिलासा करी, नीटित विदा किया । केकई अर भरत राम लक्ष्मण सीता के समीपत पाले नगरकू चाले, भरत राम की आज्ञा प्रमाण प्रजा का पिता समान हुश्रा । राज्यविर्षे सर्व प्रजाकू सुम्न, कोई मनाचार नाहीं; ऐसा नि:कंटक राज्य तोहू भारत का क्षणमात्र राग नाहीं। तीनों काल श्री अरनाथ को वंदना कर है पर मुनिन के मुखत धर्म श्रवण कर; घुति भट्टारक नामा जे मुनि, अनेक मुनि मार है सेवा जिनका, तिनके साभास में यह नियम लिया कि राम के दर्शन मात्र ही मुनिव्रत धारूंगा। तब मुनि कहते भए किहे भव्य ! कमल सारिखे हैं नेत्र जिनके, ऐसे राम जी लग न प्राव तो लग तुम गृहस्थ के व्रत घारहु । जे महात्मा नियंथ हैं तिनका प्राचरण प्रति विषम है सो पहिले धावक के व्रत पालने तासू यति का धर्म सुम्पसू सधै। जब वृद्ध अवस्था आवेगी तब तप करेंगे, यह वार्ता कहते हुवे अनेक जड़बुद्धि मरणकू प्राप्त भाए । महा अमोलक रत्न समान यति का धर्म, जाकी महिमा कहने विर्ष न आय ताहि जे धार हैं तिनकी उपमा कोन की देहि । यति के धर्मत उत्तरता श्रवक का धर्म है जे प्रमाद रहित करें हैं ले धन्य हैं। यह प्रणुप्रत हू प्रबोध का दाता है। जैसे रत्नद्वीप विर्ष कोऊ मनुष्य गया पर वह जो रल लेय सोई देशांतर विर्षे दुर्लभ है तसे जिनधर्म नियमरूप रत्तनिका द्वीप है, ता विर्षे जो नियम लेय सोई महाफल का दाता है। जो अहिसारूप रत्नफू अंगीकारकर जिनवरकू भक्तिकर भरच सो सुर नरके सुख भोग मोक्ष प्राप्त होय 1 पर जो सत्ययतका घारण मिथ्यात्व का परिहारका भावरूप पुष्पनिकी माला कर जिनेश्वरकूपूजे हैं, ताकी कीति पृथ्वी विप विस्तर है पर माज्ञा कोई लोप न सके । पर जो परधन का त्यागी जिनेंदकू उरविर्षे धार बारंबार जिनेंद्रफू नमस्कार कर, वह नव निधि चौदह रत्न का स्थामी होय अक्षयनिधि पावै। पर जो जिनराज का मार्ग अंगीकार कर परगारी का त्याग कर सो सबके नवनिकू पानंदकारी मोक्ष-लक्ष्मी का बर होय । पर जो परिग्रह का प्रमाणकर संतोष घर जिनपतिका ध्यान कर सो
SR No.090270
Book TitleMahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherSohanlal Sogani Jaipur
Publication Year
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, History, & Biography
File Size7 MB
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