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जीवंबर स्वाभि चरित
नाम बिजं-गिर गंध गज, ता परि चढ़िया आप । शत्रु मान मोडन सदा, धारयां प्रतुल प्रताप ।। ५० ।। असनिवेग इक नाम गज, ता सिरि चढ्यो प्रथांन । काष्टांगारिक नीच नर उद्धत अपजस बांन ॥ ५१ ॥ भयो परसपर जुद्ध प्रति हत्यो चक्र करि सोय । हे चक्र सामानि है, नही सुदरसन होय ।। ५२ । मूबो लखि घरूप र्कों, भागे ताके लोक | तव स्वामी प्रति शांत, मेयो सवकी सोक ।। ५३॥ करी दिलासा सवनिकी, श्रभं घोषणा देय |
सौं प्रतिहले बगल में से४।। कियो विनै विरघांनि को उपजायो संतोष | आये जिन मंदिर जर्व, जीवंधर गुण कोष ।। ५५ ।। करी महा पुजा तवे, प्रभु की मंगल रूप | दिये दोन दीनांनिकों, कीरति भई अनूप ॥ २५६ ॥
राज्याभिषेक --
नर नायक आये बहुत अर प्रायो जमिराय ।
कियो राज अभिषेक तिन दियो तिलक लगि पाय ।। ५.७१ ।
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परनी रतनवती महां, उछव सौं भूपाल 1
गंधर्ववता करो, पटरानी सुभ चाल ॥ ५८ ॥ नंदायादिक भेजिक, लई वुलाय सुमात । अर रानी परती हुती, ते यांनी सुखदात ।। ५६ ।। सव कटुंब भेला प्रभू, प्रति ऐश्वर्य सुरूप । अंतर वाहिज सत्रु के, जेता अधिक अनूप ||६० ॥ न्याय थकी परजा सकल, पाली परम दयाल |
भोग भोगये इद्र से लीला करी रसाल ॥ ६१ ॥
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