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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तिनको सुत मैं हौं सही, विजया उदर मझार । उपज्यो इह निश्चं करो, यामै सक न लगार 11३८।। को इक कर्म प्रबंध त, मोकौं भयो वियोग । लही वृद्धि मैं सेठ घरि, प्राय मिल्यो अव जोग ।।३।। काष्टांगारिक पाप धी, तिण लकरी पर कांस। वहुरि कोइला वेचतो, सिर परि ल्यातो वास ।।४०॥ काल षेप करतो कुधी, था विधि पुरक मांहि । तासौं तुम्हरे भृष् नै, कमी जु राखी नांहि ।।४१ ।। कियो वरावरि आपनी, दियो मंत्रि पद याहि । यानै अवसर पायकै, रण मैं मारयो ताहि ।।४२।। पं पावै जो सांप कौं, तऊ प्रांग ही लेय । सो कवति सांची करी, नरभव को जलदेय ।।४३।। लियो धनी को राज इंह, अव मैं मारौं याहि । जाय रसातल में घुसै, तोव न छोडौं ताहि ।।४४।। मेरौ ई अरि नांहि इह, तुम सबको अरि एह । सेवक मेरे तात के, मोसौं करो सनेह ।।४।। स्वामि धर्मधर सेवका, तिनको मारग एह । हने स्वामि के शत्रु कौं, त्याग अपनी देह ।।४६।। या विधि पत्री वांचिके, सवनि लखी मन माहि । सत्यधर की पूत इह, यामैं संस नाहि ।।४७।।
युद्ध वर्णन
आय मिले तव बहु सुभट, निज निज सेना लेय । चन्यो राव सुत अरि पर, सही नगारा देय ।।४८॥ भयो जुद्ध नाना विधो, मुची सत्रु की सेन। तव वैरी आयो प्रवल, तऊ पाप सकुचेन ।।४६।।