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महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
इसका वर्णन किया गया है। कवि ने अपने बर्य-विषय को निम्नप्रकार प्रस्तुत किया है -
पहली दंडक नारक तनौ, भवनपति दस दंडक भनौ । जौतिग बितर सुरग निवास. थावर पंच महादुखरास ।।७।। विकलत्रय अरु नर तिरजंच, पंचेंद्री धारक परपंच । एहे चौबीसी दंडक कहे, अब सुनि इनमैं भेद जु लहै ।।
'तीर्थकर' के माता-पिता मर कर किस गति में जाते हैं इसका कवि ने निम्न प्रकार वर्णन किया है
तीर्थंकर के पिता प्रसिद्ध, सुरग जाय के होहै सिद्ध । माता सुरग लोक ही जाइ, अाखरि सिवपुर वेग लहाय ।।
कवि ने पहिले सात नरकों में पंदा होने वाले जीवों का, फिर स्वर्गगति में जाने वाले देवों का, इसके पश्चात् पशु गति और फिर मनुष्य गति में उत्पन्न होने वाला जीव कम से कम किस गति में एवं अधिक से अधिक किस गति में (नरक, स्वर्ग एवं मोक्ष) जा सकता है-इसका वर्णन किया गया है
ए चौबीसौं दंडक का है, इनकु त्यागि परम पद लहे। . इनमैं रुलै सजग को जीब, इनते रहै तसु त्रिभूवन पीव ॥५२।।
कवि ने इस कृति के रचनाकाल का कोई उल्लेख नहीं किया है। केवल अन्न में अपना नामोल्लेख करके ही कृति को समाप्त कर दिया है--
अंतकरन जो सुधि होय, जिन धरमी अभिराम ।
थोरी बुद्धिप्रकास तें, भाषी दौलतराम ।। ८ सिद्ध पूजाष्टक :
यह कवि की पूजा विषयक कुक्ति है: जिसमें सिद्ध परमेष्ठियों की पुजा लिखी गयी है। इसमें १२ पद्य हैं। यह पुजाष्टक बिना प्रावानन के है तथा प्रारम्भ में मंगलाचरण के पश्चात् जल पढ़ाने का पद्य है, इसी तरह अन्त में प्रर्घ के पश्चात् जयमाला नहीं दी गयी है। अन्तिम दो पद्य
१. महावीर भवन, जयपुर के संग्रह में गुटका सं० १०८१ ३. सं.
१५५० में संग्रहीत ।