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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तिस्व एवं कृतित्व
पादि पुराण विशाल कान्य ग्रन्थ है लेकिन कषि ने भाषा टीका की एक ही शैली को अपनाया है। प्राचार्य जिनसेन के क्लिष्ट शब्दों का अर्थ जितने सरल, बोधगम्य शब्दों में किया है। वह कवि के संस्कृत एवं हिन्दी के भगाध ज्ञान का द्योतक है। पुराण की सरस शैली होने के कारण इसका गीन ही सारे देश में प्रचार हो गया और संकड़ों स्वाध्याय प्रेमियों ने इस ग्रन्थ के स्वाध्याय करने के लिए ही हिन्दी भाषा सीखी। १२ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय :
यह प्राचार्य अमृतचन्द्र की कृति है जो संस्कृत भाषा में निषच है । यह ग्रन्थ लघुकाय होने पर भी मागर में सागर का कार्य करता है। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने इसमें जैन धर्म की ताविक गम्भीरता का वर्णन किया है । जो उनके महापाण्डित्य का दिग्दर्शन कराता है । इसकी हिन्दी टीका जयपुर के ही महापण्डित उरमल ने प्रारम्भ की भी, जो महाकाय बोलतराम के समकालीन विद्वान थे । लेकिन उनका भसमय में ही स्वर्गवास होने के कारण वे इसे पूरी नहीं कर पाये । तब तत्कालीन जयपुर समाज के प्रमुख दीवान रतनचन्द्र ने दौलतराम से उसे पूर्ण करने का अनुरोध किया। दौलतराम ने संवत १८२५ में मंगसिर सुदी २ के पावन दिन इस ग्रन्थ की भाषा टीका पूर्ण की
तांसु रतन दीवान ने, कही प्रीत कर एह करिये टीका पूरण; उरघर धर्म सनेह । तब टीका पुरण करी, भाषा रूप निधान । कुशल होय चहु संघ को, लहे जीव निज ज्ञान । . सुखी होय राजा प्रजा, होय धर्म की वृद्धि । मिट दोष दुख जगत के, पावे भविजन सिद्धि । अट्ठारहस ऊपरे संवत सत्ताईस मास मार्गशिर ऋतु शिशिर दोयज रजनीश ।।
इसके पहले कवि ने F टोडरमल्ल के नाम का उल्लेख किया है। जिन्होंने उक्त टीका का प्रारम्भ किया था और उसका कितना भाग शेष रह गया था, इसका भी उल्लेख किया हैअमृतचन्द्र मूनीन्द्रकृत प्रय श्रावकाचार,
अध्यात्म रूपी महा प्रार्या छन्द जु सार । पुरुषारथ की सिद्धि को जामै परम उपाय । जाहि सुनत भव भ्रम मिटे, प्रातम तत्व लखाय ।